मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी (आप) के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलाने के लिए जनमत संग्रह कराने का नया राग छेड़ दिया है। कांग्रेस समेत सभी विरोधी दलों का आरोप है कि ऐसा उन्होंने सम-विषम फेल होने के कारण लोगों का ध्यान बंटाने के लिए किया है। जो हालात हैं और विधान हैं, उसमें दिल्ली में कोई भी पार्टी केंद्र से लड़कर सरकार नहीं चला सकती। पिछले साल जब आप ने जनमत संग्रह की बात कही तो चौतरफा विरोध होने लगा। लंबे संघर्ष और बहस के बाद संविधान में हुए 69वें संशोधन के बाद दिल्ली को विधानसभा तो मिली, लेकिन राष्ट्रीय राजधानी होने के कारण उसे केंद्र शासित प्रदेश ही बनाए रखा गया।
भाजपा जब केंद्र की सत्ता में आई तब चौतरफा दबाव में 18 अगस्त 2003 को दिल्ली राज्य विधेयक 2003 संसद में पेश किया गया। उसे बाद में प्रवर समिति में भेज दिया गया, जहां जाकर वह दफन हो गया। उस विधेयक में नई दिल्ली नगर पालिका क्षेत्र (एनडीएमसी) इलाके के अलावा पूरी दिल्ली को चुनी हुई सरकार के अधीन करने का प्रस्ताव था।
देश के प्रतिष्ठित नौकरशाह (पूर्व कैबिनेट सचिव) रहे टीएसआर सुब्रमण्यम ने तो दिल्ली की मौजूदा सरकार के व्यवहार पर दिल्ली सरकार के अधिकार को कम करने की वकालत की है और सवाल किया है कि किस बात का जनमत संग्रह? क्या दंतेवाड़ा और गोरखालैंड को स्वतंत्र करने की मांग पर जनमत संग्रह हो सकता है। दिल्ली देश की राजधानी है, यहां दिल्ली पुलिस से लेकर अनेक विश्वविद्यालय संस्थाएं केंद्रीय बजट के पैसे से चलती हैं, तो दिल्ली पर फैसला करते समय देश भर के लोगों से क्यों न जनमत संग्रह करवाया जाए।
आजादी के बाद मार्च 1952 में महज दस विषयों के लिए 48 सदस्यों वाली दिल्ली को विधानसभा दी गई थी। 1955 में राज्य पुनर्गठन आयोग बनने के बाद दिल्ली की विधानसभा भंग कर दी गई। कहा जाता है कि पहले मुख्यमंत्री चौधरी ब्रह्म प्रकाश के केंद्र और दिल्ली के मुख्य आयुक्त से विवाद के चलते दिल्ली विधानसभा भंग की गई। 1958 में दिल्ली नगर निगम अधिनियम के तहत दिल्ली में नगर निगम बना। 1966 में प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट आने के बाद 61 सदस्यों वाली महानगर परिषद बनी जिसे 1987 में भंग करके दिल्ली को नया प्रशासनिक ढांचा देने के लिए बनी बालकृष्ण कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर 1991 में पुलिस और जमीन के बिना विधानसभा दी गई। उसके तहत 1993 में पहला चुनाव हुआ और दिल्ली में भाजपा की सरकार बनी।
दिल्ली सरकार के अधीन न तो नई दिल्ली नगर पालिका परिषद है, न दिल्ली छावनी और न ही दिल्ली के तीनों निगम। पुलिस और डीडीए तो विधान में ही केंद्र के अधीन हैं। 1993 में बनी भाजपा सरकार ने प्रयास करके दिल्ली फायर सर्विस, होम गार्ड, बिजली, पानी, डीटीसी अपने अधीन कर लिया था। 1998 में तत्कालीन मुख्यमंत्री साहिब सिंह वर्मा ने प्रयास करके दिल्ली सरकार को कर लगाने का अधिकार दिलाया। उससे पहले मदन लाल खुराना ने आला अफसरों की गोपनीय रिपोर्ट लिखने और संबंधित मंत्रियों से लिखवानी शुरू की। उस पर अंतिम मुहर उपराज्यपाल की ही लगती थी, लेकिन इससे यह संदेश जाने लगा था कि राजनिवास के अलावा भी कोई सत्ता है। 15 साल तक दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित ने इसमें कुछ बदलाव करने की कोशिश की तो उन्हें सफलता नहीं मिली। हालांकि उन्होंने टकराव के बजाए संवाद से ज्यादा विवाद सुलझाए।
दिल्ली विधानसभा बनने के दौरान लंबे समय तक उसके सचिव रहे एसके शर्मा का मानना है कि दिल्ली सरकार के अधिकार सीमित हैं। वह सिर्फ राज्यपाल से संवाद करके गैर-आरक्षित 63 विषयों (शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, राशन आदि) पर काम कर सकती है। विधानसभा से पूर्ण राज्य का बिल पारित कर देने या जनमत संग्रह कराने से कुछ दिन सुर्खियां बन सकती हैं, लेकिन दिल्ली सरकार के अधिकार नहीं बढ़ सकते।
विधानसभा के दूसरे सचिव पीएन मिश्र का कहना है कि जनमत संग्रह से फैसले लेने का कोई विधान ही नहीं है। लोकतंत्र तो संवाद से चलता है। वे भी इसे राजनीतिक शगूफे से ज्यादा कुछ नहीं मानते हैं। उन्होंने कहा कि सम-विषम के फेल होने के बाद कुछ दिन इस मुद्दे पर चर्चा होगी। उसके बाद फिर सुर्खियों में बने रहने के लिए कोई नया मुद्दा खोजा जाएगा।
