मनोज कुमार मिश्र
राज्य सरकार के साथ केंद्र सरकार भी दिल्ली को कोरोना को नियंत्रित करने के लिए हर तरह से जुटी रही।पिछले कुछ सालों की तरह इस बार भी साल जाड़ों के शुरू में प्रदूषण ने लोगों का सांस लेना दूभर कर दिया है। एकबारगी वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई)400 के पार कर गया। एक दिन की बरसात ने प्रदूषण को कुछ कम किया था लेकिन फिर से हालात खराब हो गए।
पहले कोरोना और अब प्रदूषण के कारण लोगों को सलाह दी गई कि वे घरों से बाहर बेहद जरूरी होने पर ही निकलें। कोरोना और सरकारी कुव्यवस्था को झेल रही सार्वजनिक परिवहन प्रणाली इस बार इस हालत में भी नहीं है कि दिल्ली सरकार इस बार निजी कारों का सम-विषम का फिर से प्रयोग कर सके।
गिनती के बचे दिल्ली परिवहन निगम (डीटीसी) और सरकार के अधीन चलने वाली बसों में पहली नवंबर से पूरी सीटों पर यात्रियों को बैठाने की इजाजत दी गई। अब तक बसों में कोरोना से बचाव के लिए तय मानदंडों के हिसाब से उचित दूरी के कारण बस में केवल बीस यात्री को ही चढ़ने देने की इजाजत थी।
दिल्ली की जीवन रेखा बनी मेट्रो रेल को उचित और सुरक्षित दूरी के हिसाब से तमाम एहतियात के साथ चलाया जा रहा है। उसे अपने रफ्तार यानी पूरी संख्या में यात्रियों को ले जाने लायक छूट मिलने में काफी समय लगेगा।
कोरोना से बचाव के लिए ज्यादातर लोग अपने वाहनों का प्रयोग कर रहे हैं। जाहिर है इससे इस कोरोना महामारी के समय भी सड़कों पर भारी भीड़ दिखने लगी है और सामान्य दिनों से उलट उन इलाकों में भी दिन में ही जाम लगने लगा है जहां पहले किसी कारण से ही जाम लगता था।
इस जाम के कारण प्रदूषण ज्यादा हो जाता है और बीच सड़क पर सांस लेना कठिन होने लगा है। हालात ऐसे हो गए हैं कि फरवरी-मार्च से शुरू हुई कोरोना महामारी और पूर्णबंदी के कारण लोगों को सवेरे-शाम टहलने या शारीरिक श्रम करने की सलाह दी जाती थी, अब प्रदूषण बढ़ने पर दोपहर में ही घरों से बाहर निकलने की सलाह दी जा रही है।
केजरीवाल सरकार ने सरकार में आने पर 2016 में दो बार और 2019 में एक बार करीब 25 लाख कारों को सम-विषम के आधार पर चलायी, यानी एक दिन सम नंबर की कारें और दूसरी दिन विषम नंबर की कारें चलाईं। इस का कुछ लाभ हुआ लेकिन बेहतर सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था न होने से उस दौरान लोगों को काफी परेशानी हुई।
इस बार सार्वजिक परिवहन की बदतर हालत के कारण सम-विषम करना संभव नहीं हुआ है तो दिल्ली सरकार लाल बत्ती (रेड लाइट)पर गाड़ियों के इंजन बंद करवाने के अभियान में पार्टी कार्यकताओं के साथ जुटे हुए हैं।
दिल्ली की बेहिसाब आबादी तो प्रदूषण का कारण माना ही जा रहा है। पहले अवैध औद्यौगिक इलाके, एक राज्य से दूसरे राज्य जाने वाले ट्रक-बस आदि दिल्ली और एनसीआर (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र योजना) में प्रदूषण बढ़ाने का कारण माने जाते थे। वैसे अभी भी अवैध उद्योग हैंै। दिल्ली सरकार ने प्रदूषण कम करने के लिए किसी भी नई उत्पादन ईकाई (मैनिफ्कैचरिंग यूनिट) को लाइसेंस देने पर पाबंदी लगा दी है।
1996 में ही एक नवंबर को विज्ञान और पर्यावरण केन्द ्र(सीएसई) ने एक शोधपरक लेख-स्लो मर्डर,द देल्ही स्टोरी आॅफ व्हीकुलर पाल्युशन इन इंडिया, छापा। इसमें बताया गया कि वाहन प्रदूषण के मामले में दिल्ली देश में पहले नंबर पर है। इस पर संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 18 नवंबर को दिल्ली सरकार को नोटिस दिया और इस बारे में कार्ययोजना पेश करने को कहा।
इसी बीच सीएसई ने दुनिया के वैज्ञानिकों की जन सुनवाई आयोजित की। इसमें यह बताया गया कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देश पर कोई काम नहीं कर रही है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने दोबारा केंद्र सरकार को नोटिस दिया। दिसंबर में केंद्र सरकार ने एक श्वेत पत्र जारी किया।
इसी के आधार पर अदालत ने केंद्र सरकार को पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 की धारा-3 के तहत राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के लिए एक विशेष एजंसी-पर्यावरण प्रदूषण (रोकथाम और नियंत्रण) प्राधिकरण गठित करने के निर्देश दिए। चूंकि पूर्व नौकरशाह भूरेलाल इस प्राधिकरण के अध्यक्ष नियुक्त हुए इसलिए यह भूरेलाल कमेटी के नाम से भी चर्चित हो गया।
इस कमेटी की शुरुआती रिपोर्ट के बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने 28 जुलाई 1998 को आदेश दिया कि दिल्ली में चलने वाले सभी बसों को धीरे-धीरे सीएनजी पर लाया जाए। इसकी तारीख 31 मार्च 2001 तय की गई। केंद्र और दिल्ली सरकार एक दूसरे पर जिम्मेदारी टालते रहे तो अप्रैल 2002 में सुप्रीम कोर्ट ने दोबारा सख्त आदेश दिए।
उसके बाद सीएनजी पर बसों और व्वासायिक वाहनों को लाने की प्रक्रिया तेज हुई। कायदे में 2010 के राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में मिले पैसों से दिल्ली की सड़कों पर बसें दिखने लगीं। दिल्ली सरकार ने हाई कोर्ट में 11 हजार बसें चलाने का हलफनामा दे रखा है लेकिन अब तो 2010 की बसें भी सड़कों पर से हटने लगीं और अब बसों की संख्या गिनती की रह गई है।
डीटीसी के अधीन चलने वाली निजी बसें ही सड़कों पर दिख रही है। दिल्ली मेट्रो अपनी गति से चल रही है। हर रोज 28 लाख से ज्यादा लोग दिल्ली मेट्रो से यात्रा करते थे लेकिन करोना में उनका रफ्तार भी थाम ली। अभी तमाम सावधानी के साथ मेट्रो को चलाया जा रहा है।काफी लोग लोकल रेल से भी यात्रा करते थे उसे भी अभी शुरू नहीं किया गया है।
सार्वजनिक परिवहन प्रणाली न होने से कोरोनाकाल में आम लोगों की परेशानियां और बढ़ गई हैं। संयोग से अनेक दफ्तरों में घर से काम हो रहा है, अन्यथा सड़कों पर भीड़ बढ़ती ही जाती। जिसके लिए संभव है वह अपने वाहन से यात्रा कर रहा है। ऐसे में सड़कों पर से वाहनों की भीड़ कम कैसे हो सकती है।
दिल्ली में पंजीकृत वाहनों की तादाद एक करोड़ से ज्यादा है। लाखों वाहन एनसीआर के दूसरे राज्यों में पंजीकृत हैं जो हर रोज दिल्ली में चलते हैं। इसलिए कोई भी योजना पूरे एनसीआर के लिए बनाने के बाद ही प्रदूषण पर काबू पाया जा सकता है। इस इलाके की यह समस्या है कि वह अच्छे-बुरे के लिए दूसरों पर निर्भर है।
दिल्ली का न अपना मौसम है और न ही दिल्ली वालों की जरूरत पूरा करने के लिए बिजली और पानी। दिल्ली की किसी भी समस्या का समाधान करना अकेले दिल्ली के बूते नहीं है। कोरोना तो वैश्विक महामारी है, उसपर नियंत्रण तो कारगर दवा के आने तक होने का सवाल ही नहीं है। प्रदूषण के संकट के स्थायी समाधान के लिए दिल्ली को केंद्र और पड़ोसी राज्यों का सक्रिय सहयोग चाहिए।
दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण की एक बड़ी वजह पराली जलाना भी माना जाता है
पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के किसान खेत खाली करके दूसरी फसल लगाने के लिए खेत खाली करने के लिए खेत में फसलों के अवशेष को जलाते हैं, जिसका धुआं दिल्ली पर छा जाता है। अदालती आदेश के बाद सरकारों ने पराली न जलाने और उसका दूसरा बेहतर उपयोग करवाने के प्रयास शुरू किए हैं।
इसी तरह से एनजीटी ने दस साल पुराने व्यवसायिक वाहनों पर रोक लगा दी। उससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 15 साल पुराने डीजल वाहनों पर स्थायी बंदिश लगा दी है। बावजूद इसके इस बार प्रदूषण कम होता नहीं दिख रहा है।
दिल्ली में पहले भी सारे व्यावसायिक वाहनों को अदालती आदेश से सीएनजी पर चलाया जा रहा है। हालात एक दिन में खराब नहीं हुए हैं। कुप्रबंधन और सरकारी लापरवाही ने दिल्ली के हालात बदतर बना दिए और सुधार के आसार दिख ही नहीं रहे हैं।