कुछ दिनों पहले इस्लामिक स्टेट खुरासान प्रोविंस (आइएसपीके) ने मध्य काबुल के होटल को अपना निशाना बनाया। वहां चीन से आए मेहमान और कारोबारी रुके हुए थे। इस वारदात के बाद चीन दोबारा नए अफगानिस्तान की सुरक्षा समस्याओं के केंद्र में आ गया है।

अफगानिस्तान में तालिबान अब बागी और आतंकी संगठन का चोला उतारकर राज्यसत्तावादी और सियासी प्रणाली का लबादा ओढ़ने की कोशिश कर रहा है। वहां के तालिबान शासक कई देशों से संबंध बनाने में जुटे हैं। अमेरिका के वहां से हटने के बाद चीन की रुचि अफगानिस्तान में बढ़ी है और तालिबान शासक चीनियों का स्वागत कर रहे हैं।

ये चीनी आइएसकेपी के आतंकियों को नहीं भा रहे हैं। दक्षिण एशिया को ध्यान में रखते हुए प्रकाशित होने वाले आइएस की दुष्प्रचार सामग्रियों में चीन-विरोधी सामग्री जारी की जा रही है। साथ ही, आइएस के ‘वायस आफ खुरासान’ ने तालिबान के खिलाफ मुहीम छेड़ी हुई है। 20 साल तक तालिबान ने अफगानिस्तान में अमेरिकी मौजूदगी को अपनी सरजमीं पर साम्राज्यवादी दखल करार देकर अपनी इस्लामी विचारधारा को मजबूत बनाया।

इस दौरान उसने अमेरिका के खिलाफ जंग को जेहाद ठहराया। पूर्ववर्ती सोवियत संघ के साथ हुए संघर्ष में भी तालिबान ने यही चाल चली थी। तालिबान अब आइएस के खिलाफ इसी रास्ते पर है। दूसरी ओर, आइएसकेपी चीन को उसी चश्मे से देखता है जिससे तालिबान, अमेरिका और पूर्व सोवियत संघ को देखा करता था।

इन हालात में अफगानिस्तान ऐसा अकेला मुल्क नहीं है, जहां चीन को इस्लामी लड़ाकों का विरोध झेलना पड़ रहा है। अल-कायदा से जुड़े आतंकी गुट अल शबाब ने भी मुखर होकर चीन-विरोधी अभियान शुरू कर दिया है। इस आतंकी संगठन का सोमालिया के कई इलाकों पर नियंत्रण है। दरअसल, कुछ महीनों में चीन ने काबुल में तैनात अपने राजदूत के जरिए करीब हर हफ्ते तालिबान के साथ राय-मशविरों को अंजाम दिया है।

इस दौरान आर्थिक और निवेश से जुड़े तमाम अवसरों पर चर्चा हुई है। यहां तक कि तालिबान ने खनन से जुड़ी बड़ी परियोजनाओं को चीन के लिए आरक्षित रखने के भी संकेत दिए हैं। चीन के स्वागत की तैयारियों में तालिबान मुल्क में बुद्ध मूर्तियों के संरक्षण की दिशा में भी काम करने लगा है। निश्चित रूप से मौजूदा घटनाक्रम 2001 से बिलकुल विपरीत हैं।

उस वक्त तालिबान के तत्कालीन मुखिया मुल्ला उमर की अगुवाई में बामियान की प्रसिद्ध बुद्ध प्रतिमाओं को तबाह कर दिया गया था। आज वही तालिबान निवेश के बदले चीन को अफगानिस्तान की कुदरती दौलत सौंपने को बेताब है। उन्हें यह महसूस हो गया है कि उनका इस्लामिक अमीरात, मजहबी राज्यसत्ता बनकर लंबे अर्से तक फल-फूल नहीं सकता।

अफगानिस्तान के मौजूदा सत्ताधारी वर्ग (जैसे हक्कानी नेटवर्क और कंधारी गुट) को समान रूप से ये एहसास हो गया है कि उन्हें अपने-अपने हितों और आने वाले भविष्य की सुरक्षा के लिए मजबूत और आजाद वित्तीय आधार की दरकार होगी। राज्यसत्ता के हिस्से के रूप में और संभावित रूप से एक-दूसरे के खिलाफ संतुलन बनाने के लिए भी इस तरह की कवायद जरूरी है। तालिबान निवेश के बदले चीन को अफगानिस्तान की कुदरती दौलत सौंपने को बेताब है। उन्हें ये महसूस हो गया है कि उनका इस्लामिक अमीरात, मजहबी राज्यसत्ता बनकर लंबे अर्से तक फल-फूल नहीं सकता।

अफगानिस्तान के मौजूदा सत्ताधारी वर्ग को समान रूप से ये एहसास हो गया है कि उन्हें अपने-अपने हितों और आने वाले भविष्य की सुरक्षा के लिए मजबूत और आजाद वित्तीय आधार की दरकार होगी। अफगानिस्तान में अमेरिकी ताकत की जगह चीन के रसूख में समान रूप से बढ़ोतरी होने की बात हमेशा से सतही थी।

चीन की दौलत, पाकिस्तानी फौज और तालिबान की मिली-जुली राजनीतिक इच्छाशक्ति के प्रभाव से काबुल को मजबूत बनाने से जुड़ा कोई मौजूदा चीनी विचार भी बेहद लचर है। इस नजरिए में दो सामरिक मोर्चों पर और दरार आ गई। पहला, चीनी हितों की सुरक्षा के लिए ईस्ट तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी या वीगर लड़ाकों वाली उसकी शाखाओं के सदस्यों को पकड़ने, प्रतिबंधित करने या सौंपने को लेकर तालिबान की ओर से दिखाई गई बेरुखी।

दूसरा, अफगानिस्तान में सुरक्षा के मोर्चे पर अपनी जगह पाकिस्तान को संभावित रूप से इस्तेमाल करने की चीनी हसरतों पर भी पानी फिरता नजर आ रहा है। संक्षेप में कहें तो अफगानिस्तान में अपने आर्थिक हितों की हिफाजत के लिए चीन, पाकिस्तानी लहू के इस्तेमाल का इरादा रखता है। हाल ही में काबुल में पाकिस्तानी राजदूत पर जानलेवा हमला हुआ था। इस हमले की जिम्मेदारी आइएसकेपी ने ली है।

ताजा वारदात से पाकिस्तान और तालिबान के रिश्तों में और खटास आ गई है। इससे पहले भी पाकिस्तान-अफगानिस्तान सरहद पर नियमित रूप से हमले होते रहे हैं। दरअसल तालिबान एक अर्से से तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान को पनाह देता आ रहा है। यह संगठन अफगान तालिबान द्वारा मुहैया कराई गई सामरिक ताकत के इस्तेमाल से पाकिस्तान को लगातार निशाना बनाता आ रहा है।

तालिबान में मतभेद

तालिबान के भीतरी गुटों में भी धीरे-धीरे आपसी मतभेद मुखर होते जा रहे हैं। दरअसल तालिबान के सर्वोच्च नेता हिबतुल्लाह अखुंदजादा, अंतरराष्ट्रीय बिरादरी (खासतौर से पश्चिमी दुनिया) को खुश करने के लिए तालिबान की विचारधारा में किसी भी तरह की रियायत दिए जाने का धुर विरोध करते रहे हैं। इनमें लड़कियों की शिक्षा जैसे मसले शामिल हैं।