Ram Vilas Paswan: साल 1984 का लोकसभा चुनाव। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए इन चुनावों में कांग्रेस की आंधी में तमाम दिग्गज नेता उड़ गए थे। इसमें रामविलास पासवान भी शामिल थे। जिस हाजीपुर सीट से पासवान रिकॉर्ड वोट से जीतकर लोकसभा पहुंचे थे, 1984 में वो सीट उनके हाथ से निकल गई। पासवान को कांग्रेस के उम्मीदवार से हार का सामना करना पड़ा।

1984 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद रामविलास पासवान चौतरफा मुश्किलों से घिर गए। सांसदी जाने के बाद पहले दिल्ली में रहने की समस्या खड़ी हुई। फिर आर्थिक दिक्कतें तो थीं ही। हालांकि पासवान लगातार अपने संसदीय क्षेत्र में सक्रिय रहे। लोगों से मिलते और उनकी खोज-खबर लेते रहे। इस दौरान उन्हें लोकसभा का दो चुनाव लड़ने का मौका भी मिला। पहला साल 1985 में बिजनौर से और फिर 1987 में हरिद्वार से। लेकिन वे दोनों चुनाव हार गए।

चौधरी चरण सिंह ने उतारा मैदान में: 1984 के लोकसभा चुनाव में बिजनौर सीट से जीते चौधरी गिरधारी लाल का कुछ ही महीनों में निधन हो गया और उप चुनाव की घोषणा हुई। यह सीट सुरक्षित थी। ऐसे में कुछ स्थानीय नेता दिल्ली आए और चौधरी चरण सिंह को सुझाव दिया कि यहां से पासवान को लड़ाया जाए। चरण सिंह को भी यह सुझाव पसंद आया और उन्होंने पासवान को बुलाकर उन्हें बिजनौर से लड़ने को कहा।

‘पैसे की नहीं होगी दिक्कत’: पेंगुइन से प्रकाशित पासवान की जीवनी ‘रामविलास पासवान: संकल्प, साहस और संघर्ष’ में प्रदीप श्रीवास्तव लिखते हैं कि चरण सिंह के सुझाव से पासवान हक्के बक्के रह गए थे। उन्होंने थोड़ा एतराज भी जताया। पैसे की दिक्कत भी थी, लेकिन चरण सिंह ने भरोसा दिया कि हर तरीके से मदद करेंगे। उन्होंने यह भी कहा कि कुछ ही दिनों में उनका जन्मदिन आने वाला है। उसमें भी जो पैसा इकट्ठा होगा वह भी चुनाव में खर्च होगा।

दो हाई प्रोफाइल महिलाओं के बीच फंस गए पासवान: इधर, कांग्रेस ने बिजनौर सीट पर जगजीवन राम की बेटी मीरा कुमार को उतार दिया, जो कुछ दिनों पहले ही विदेश सेवा की नौकरी छोड़कर राजनीति में आई थीं। मुकाबला तब और दिलचस्प हो गया जब कांशीराम ने मायावती को इस सीट से टिकट दे दिया। दो हाई प्रोफाइल महिलाओं के बीच पासवान के लिए यहां से चुनाव जीतना आसान नहीं था। खासकर मीरा कुमार खुद राजीव गांधी के कहने पर बिजनौर से चुनाव लड़ रही थीं और एक तरीके से यह सीट राजीव की प्रतिष्ठा का प्रश्न बन गई थी।

मुलायम को भिजवाया संदेश: हालांकि इन समीकरण के बावजूद चौधरी चरण सिंह इस लोकसभा क्षेत्र में जाट मतदाताओं की बहुलता को देखते हुए पासवान की जीत को लेकर आश्वस्त थे। उन्होंने पहले शरद यादव की बिजनौर में ड्यूटी लगाई। फिर मुलायम सिंह को संदेश भिजवाकर हर संभव ताकत झोंकने का निर्देश दिया।

खुद चौधरी चरण सिंह ही नहीं पहुंच पाए: हालांकि खुद चरण सिंह चुनाव प्रचार के आखिरी दौर में बिजनौर नहीं पहुंच पाए। तमाम जाट बहुल इलाकों में उनकी सभा रखी गई थी। पासवान और उनके कार्यकर्ताओं को भरोसा था कि चरण सिंह के आने के बाद माहौल बन जाएगा। लेकिन हफ्ते भर पहले वे पैरालिसिस के शिकार हो गए। आनन-फानन में पासवान ने देवीलाल और चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह की जनसभाएं प्लान की। उनका मानना था कि अजीत सिंह, चौधरी चरण सिंह के बेटे हैं, ऐसे में जाट मतदाता उनकी बात जरूर मानेंगे।

अजीत सिंह ने आने से कर दिया इनकार: प्रदीप श्रीवास्तव लिखते हैं कि अजीत सिंह पहले तो आने को तैयार हो गए थे लेकिन ऐन मौके पर उन्होंने इनकार कर दिया। दरअसल, कुछ लोगों ने उन्हें समझा दिया था कि यदि पासवान चुनाव हार गए तो उनके राजनीतिक करियर पर इसका नकारात्मक असर पड़ सकता है। बाद में पासवान की चुनावी सभा में अजीत सिंह की जगह चरण सिंह की बेटी सरोज वर्मा पहुंचीं, हालांकि इसका कोई खास असर नहीं पड़ा।



चौधरी चरण सिंह का अनुमान था कि पासवान की जीत तय है। वे करीब 60 हज़ार के अंतर से सीट निकाल ले जाएंगे, लेकिन जब नतीजे आए तो सब हैरान रह गए थे। रामविलास पासवान महज 5000 वोट के अंतर से चुनाव हार गए थे। इस चुनाव में मीरा कुमार को 1,28,086 वोट मिले थे। जबकि रामविलास पासवान को 1,22,747 और मायावती को 61,054 वोट मिले थे।