सुआंशु खुराना

बनारस शहर में शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्लाह खां ने अपना अधिकांश जीवन व्यतित किया था। एक बार उनसे वाराणसी में उनकी दिनचर्या और बनारस के प्रति उनके लगाव के बारे में पूछा गया था। तो उंगलियों की बीच बीड़ी दबाए हुए उन्होंने कहा, “मैं दुनिया में घूमता हूं, लेकिन यह बनारस है जहां मेरा दिल है… आगे गंगा है, यहां स्नान करें; पार मस्जिद है, यहां नमाज पढ़ें, फिर रियाज के लिए बालाजी मंदिर चला जाता हूं। मुझे लगता है कि यह दुनिया में कहीं और नहीं मिलता है।”

बनारस शहर और उसके विविध रंगों के साथ-साथ हिंदू देवी-देवताओं के प्रति बिना किसी शर्त के बिस्मिल्लाह खां का प्यार झलकता है; और उनका ये प्रेम प्रसिद्ध राम धुन में दिखाई भी पड़ता है। वाराणसी के घाटों और गलियों में संगीत ने अपने लिए जगह तो बनाई, लेकिन यह कभी भी किसी एक चीज पर दृढ़ नहीं हुआ।

एक बार वाराणसी के बारे में बिस्मिल्लाह खां कहा था कि बनारस एक ऐसी जगह जहां आस्थावान लोग देह त्यागने और मोक्ष प्राप्ति के लिए आते हैं। बनारस की समरूपता, इसके संगीत, इसकी संस्कृति खान जैसे लोगों में भी नजर आती हैं। बता दें कि वर्तमान में देश के कई हिस्सों में गंगा-जमुनी तहज़ीब संकट में है। धर्म पर बहस और विवादों के शोर में डूब हुआ है, लेकिन बनारस शहर में अब भी वह तहज़ीब जिंदा है।

लेखक और तबला वादक पंडित कामेश्वर नाथ मिश्र ने इंडियन एक्सप्रेस से कहते हैं, “यदि दिवाली पर बनारस आओ तो मां गंगा के चरणों में डूबा हुआ शहर, पूरबिया की झिलमिलाहट, हजारों दीयों और संगीत के स्वरों के साथ सबकुछ जीवंत सा हो जाता है। दिवाली के त्योहार पर भजन, चैती, ठुमरी और कजरी को शहर के विभिन्न हिस्सों में सुना जा सकता है। खास बात यह है कि बनारस में यह त्योहार सिर्फ एक खास या विशेष समुदाय द्वारा नहीं मनाया जाता है। बनारस में दिवाली बनारसियों का त्योहार है। आप शहर के किसी भी घर में जा सकते हैं।” बता दें कि पंडित कामेश्वर नाथ मिश्रा दशकों तक वाराणसी की ठुमरी मातृ प्रधान गिरिजा देवी के साथ रहे हैं।

दिवाली पर वाराणसी के घाटों की सीढ़ियों को लाखों दीपों से सजाया जाता है। संकरी फिर भी पूरी तरह से मनमोहक गलियाँ दीयों से जगमगाती हैं। यह सब उन गलियों में देखने को मिलता है जहां किसी को सबसे स्वादिष्ट मलाइयो और तो किसी को बेहतरीन पान दिया जा रहा होता है। इसके अलावा बनारस में कचौरी और जलेबी भी प्रसिद्ध है।

पंडित कामेश्वर नाथ मिश्र ने आगे बताया कि “जब आप यहां दीपावली मनाते हैं, तो इस शहर के अनुभव का ही विस्तार होता है। साथ में यह बस गुणा करता है।” मिश्र कहते हैं कि “दिवाली के 15 दिन बाद वाराणसी भी देव दीपावली मनाता है। यह राक्षस भाइयों की तिकड़ी त्रिपुरासुर को हराने वाले शिव की याद में मनाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन देवताओं ने गंगा में डुबकी लगाई थी और फिर हर जगह दीये जलाए थे। तीन दशक से भी अधिक समय से लोग घाटों पर दीये जला रहे हैं।”

एक ऐसे शहर में जो अतीत को इतने हठपूर्वक पकड़ा हुआ है, वर्तमान के लिए कई सबक हैं। “बनारस का अपना रचा हुआ एक माहौल है। बहुत सी चीजों में डूबे रहने के बाद ही सब कुछ जीवंत होता है। लेकिन सतह पर कुछ भी नहीं है। बनारस में एक कहावत है: “हमहू बनारसी, तुमहु बनारसी”

नवंबर 1993 में दिवाली के लगभग एक हफ्ते बाद सितार वादक उस्ताद विलायत खान के निमंत्रण पर लंदन के क्वीन एलिजाबेथ हॉल में बिस्मिल्लाह खां अपनी प्रस्तुति दी थी। संगीत कार्यक्रम के बाद खां ने कहा था कि “मैं एक ऐसी जगह से आता हूं, जहां रस पैदा होता है। उसका नाम है बनारस।”