निखिल यादव

मात्र 39 साल 5 महीने और 24 दिन जीने वाले स्वामी विवेकानंद के विचार आज उनकी महासमाधि के 118 साल बाद भी भारत में ही नहीं  विश्व के अनेक भागों में जीवित हैं और विशेष कर भारत के करोड़ो युवाओं के वो आज भी प्रेरणा स्त्रोत हैं! 12 जनवरी, 1863 को बंगाल के कलकत्ता में जन्में स्वामी विवेकानंद 25 साल की उम्र में ही परिव्राजक सन्यासी के रूप में भारत भ्रमण पर निकल गए थे। दिसम्बर 1892 के आखरी दिनों में स्वामी विवेकानंद दक्षिण भारत के आखरी तट कन्याकुमारी पहुंचते हैं, जहां वो समुद्र तट से कुछ दूर सागर के बीचो- बीच एक प्रख्यात शिला पर 3 दिन-3 रात 25,26,27 दिसंबर,1892 को ध्यान करते हैं और अपने जीवन के उद्देश्य और योजना पर चिंतन करते हैं, जिसके बारे में हमें 19 मार्च 1894 को शिकागो से अपने गुरु भाई स्वामी रामकृष्णानंद को लिखे एक पत्र से पता लगता है! आनेवाले लगभग 10 साल (1893 से 1902 तक ) में स्वामी विवेकानंद के शब्दों में ही कहूं तो 1500 वर्ष का काम कर जाते हैं। भारतीय  दर्शन और संस्कृति को पुनः भारतीयों के बीच रखते है और विश्व को भी इसका परिचय देते है! आइये जानते हैं स्वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़े 5 रोचक प्रसंग…

खेतड़ी के राजा अजीत सिंह ने दिया था विवेकानंद नाम

स्वामी विवेकानंद की माँ, भुवनेश्वरी देवी भगवान शिव की भक्त थीं, जिसके कारण उन्होंने स्वामी जी का नाम वीरेश्वर रखा था और घर में उनको बिले बुलाया जाता था। जब औपचारिक नामकरण हुआ तो उनका नाम नरेन्द्रनाथ रखा गया। सन्यास धारण करने के बाद स्वामी जी और उनके बाकी गुरु भाइयों ने अपने नए नाम रख लिए थे, इसलिए स्वामी जी ने अब अपना नाम नरेन्द्रनाथ से विविदिषानंद रख लिया था। अपने परिव्राजक जीवन के दौरान जून 1891 में स्वामी जी राजस्थान के खेतड़ी पहुंचते हैं, जहा उनकी मुलाकात खेतड़ी नरेश राजा अजीत सिंह से होती है, राजा अजीत सिंह स्वामी जी को अपना गुरु मानते हैं और दोनों के सम्बन्ध जीवन के आखरी समय तक मजबूत रहते हैं। राजा अजीत सिंह के कहने पर ही स्वामी जी ने अपना नाम विविदिषानंद से विवेकानंद रखा था।

11 सितम्बर,1893 की विश्व धर्म महासभा से पहले बक्से में बितायी थी रात

11 सितम्बर, 1893 की विश्व धर्म महासभा से पहले स्वामी जी को अमेरिका में अत्यंत कठिन दिन व्यतीत करने पड़े थे। रहने, खाने और ठण्ड के दिनों में पर्याप्त कपड़े नहीं होने के कारण परेशानी तो थी ही साथ ही साथ रंग भेद का सामना भी करना पड़ा था। स्वामी जी पत्र में लिखते हैं अपने गुरु भाइयो को कि “यदि मैं यहां ठंडी में रोग या भूख से मर भी गया तो तुम लोग इस कार्य को आगे बढ़ाना”! प्रवाजिका मुक्तिप्राणा जी द्वारा लिखी पुस्तक परिव्राजक विवेकानंद से हमें पता लगता है कि विश्व धर्म महासभा के कार्यालय का पता और प्रो. हेनरी राइट द्वारा महासभा में भाग लेने वाला पत्र स्वामीजी से खो गया था! अब जब रात को स्वामी जी को कोई और रास्ता न दिखा तो वह अपनी रात एक बक्से (बॉक्सकार) में बिताते हैं, सुबह ठंडी हवा के कारण ही उनकी नींद टूटती है ! अगले ही दिन 11 सितम्बर ,1893 को विश्व धर्म महासभा में अपने भाषण के बाद स्वामी जी प्रख्यात हो जाते है। अब उनसे मिलने वालों का और अपने घर बुलाने वालों का ताता लग जाता है।

स्वामी विवेकानंद की अंग्रेजी सरकार करवाती थी जासूसी

भारत उस समय गुलाम था, अंग्रेज़ों का भारत पर राज था। स्वामी विवेकानंद एक राष्ट्रभक्त थे, वो राजनीति के मार्ग से अलग अपने मनुष्य निर्माण और राष्ट्र पुनरुत्थान के कार्य में लगे हुए थे। उनके व्याख्यान सुनने के लिए बड़ी संख्या में युवा भी आते थे, जो भाषण के बाद राष्ट्र प्रेम से ओत- प्रोत हो जाते थे। जिसके कारण अंग्रेज़ी सरकार उनको संदिग्ध व्यक्ति के तौर पर देखती थी। प्रो शैलेन्द्रनाथ धर द्वारा लिखी “स्वामी विवेकानंद समग्र जीवन दर्शन” के अनुसार वर्ष 1898 में जब स्वामी जी अल्मोड़ा यात्रा पर थे, उन दिनों अंग्रेज़ उनकी निगरानी करते थे। जब यह सूचना स्वामीजी को पता लगी तो उन्होंने यह बात हंसी में उड़ा दी थी, लेकिन भगिनी निवेदिता और अन्य सहयात्रियों ने इस विषय को गंभीरता से लिया था। स्वामी जी द्वारा सम्प्रेषित पत्र डाकघरों में पढ़े जाते थे, यह तथ्य भी सामने आता है।

स्वतन्त्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक थे स्वामी जी से प्रभावित

“रेमिनिसेंसेस ऑफ़ स्वामी विवेकानंद -एन अन्थोलोजी बाय हिज ईस्टर्न एंड वेस्टर्न ऐडमायरर्स” पुस्तक में बाल गंगाधर तिलक लिखते हैं कि जब वो बम्बई स्टेशन से पुणे जाने के लिए रेलगाड़ी के जिस यात्री – डिब्बे में बैठे थे उसी यात्री – डिब्बे  में एक सन्यासी प्रवेश करता है। स्वामीजी को जो लोग छोड़ने आये थे वो श्री तिलक जी को जानते थे और उन्होंने स्वामीजी से उनका परिचय भी करवा दिया था और पुणे में तिलक जी के घर पर ही रहने का अनुरोध किया था। बाल गंगाधर तिलक आगे लिखते हैं कि, स्वामी जी के पास बिलकुल भी पैसे नहीं थे और वो हाथ में एक कमंडल साथ रखते थे। विश्व धर्म महासभा की सफलता के बाद जब स्वामजी के चित्र श्री तिलक ने समाचार पत्रों में देखे तो उनको याद आया की यह वही सन्यासी हैं जिन्होंने उनके घर पर कुछ दिन तक निवास किया था। जिसके बाद दोनों के बीच पत्र व्यवहार भी हुआ था ! 1901 में जब इंडियन नेशनल कांग्रेस का 17वां अधिवेशन हुआ तो उसमें भाग लेने के लिए श्री तिलक जी कलकत्ता आये थे, इसी दौरान वह बेलूड़ मठ जाकर स्वामीजी से मिले थे। स्वामीजी ने उन्हें सन्यास लेने और बंगाल आकर उनका कार्यभार सँभालने को भी कहा था, क्योंकि स्वामीजी के अनुसार अपने क्षेत्र में कोई व्यक्ति इतना प्रभावशाली नहीं होता जितना सुदूर क्षेत्रों में! इस मुलाकात के बाद भी श्री तिलक जी बेलूड़ मठ आये थे और स्वामीजी से मार्गदर्शन लिया था! उनके द्वारा स्थापित समाचार पत्र  “केसरी” के संपादक श्री एन. सी. केलकर भी स्वामीजी मिलने आये थे !

गाँधी जी भी स्वामी विवेकानंद से मिलना चाहते थे

महात्मा गांधी अपनी  आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में लिखते हैं कि अपने कलकत्ता प्रवास में वो एक दिन पैदल ही बेलुड़ मठ की ओर चल पड़े थे ,लेकिन उनको यह जानकर बहुत निराशा हुई कि स्वामीजी अस्वस्थ हैं और उनकी मुलाकत स्वामीजी से नहीं हो पाई ! हालांकि स्वामीजी की शिष्या भगिनी निवेदिता से गाँधी जी 2 बार मिले थे और विभिन्न मुद्दों पर चर्चा भी की थी ! स्वामीजी के निधन के काफी बाद एक बार पुनः 6 फरवरी ,1921 को गाँधी जी बेलुड़ मठ आये थे और उन्होंने कहा था” स्वामीजी की समस्त रचनाओं का अध्ययन मैंने ध्यानपूर्वक किया है और उन्हें पढ़ने के उपरांत आज मेरे मन में अपने देश के प्रति जो प्रेम है वह पहले की अपेक्षा कई सहस्त्र गुना बढ़ चुका है” !

(लेखक विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रांत के युवा प्रमुख हैं और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वैदिक संस्कृति में सीओपी कर रहे हैं)