सोनिया गांधी किसी जमाने में न तो खुद राजनीति ने आना चाहती थीं न ही पति राजीव गांधी को राजनीति में देखना चाहती थीं। जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं तब राजीव और सोनिया दोनों ही राजनीति से अलग रहा करते थे और संजय गांधी की इंदिरा गांधी का उत्तराधिकारी माना जाने लगा था। लेकिन जब जून 1980 में अचानक विमान दुर्घटना में संजय गांधी की मृत्यु हो गई तो गांधी परिवार के सामने उत्तराधिकारी का संकट खड़ा हो गया। मेनका गांधी शुरू से ही राजनीति में दिलचस्पी रखती थीं लेकिन सोनिया गांधी नहीं चाहती थीं कि मेनका गांधी राजनीति में आएं।

सोनिया गांधी ये भी नहीं चाहतीं थीं कि उनके पति राजीव गांधी राजनीति में आएं। सोनिया गांधी की जीवनी, सोनिया: ए बायोग्राफी लिखने वाले रशीद किदवई अपनी किताब में लिखते हैं, ‘शायद सोनिया ने राजनीति में मेनका की एंट्री रोकी लेकिन वो राजीव गांधी के संजय गांधी की जगह लेने के भी उतने ही खिलाफ थीं। एक बार तो उन्होंने राजीव गांधी को धमकी दे डाली थी कि अगर वो राजनीति में प्रवेश करेंगे तो वो उनकी जिंदगी से निकल जाएंगी।’

सोनिया गांधी ने राजीव गांधी के राजनीति में आने का पुरजोर विरोध किया लेकिन वक्त के साथ उन्हें लगने लगा कि इंदिरा गांधी को राजीव गांधी की जरूर है।

 

किदवई सोनिया गांधी के हवाले से लिखते हैं, ‘मैंने मां के प्रति राजीव के कर्तव्य को समझा। उसी वक्त मुझे यह भी एहसास हुआ कि मैं उस वक्त के सिस्टम से नाराज़ थी, जैसा कि मैं देख रही थी, राजीव गांधी को बली का बकरा बनाया जा रहा था। मैं बिल्कुल निश्चिंत थी कि राजनीति उन्हें बर्बाद कर देगी।’

 

सोनिया गांधी ने बताया था कि राजीव गांधी का राजनीति में आना कोई चॉइस नहीं था बल्कि वो इसलिए आए क्योंकि उस जगह को भरने के लिए कोई और योग्य नहीं था। राजीव गांधी को लेकर इंदिरा गांधी भी कई मौकों पर यह कह चुकी थीं कि वो एक अराजनीतिक व्यक्ति हैं।

लेकिन 1984 में जब इंदिरा गांधी की हत्या हो गई तब राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद संभालना पड़ा और वो एक सशक्त प्रधानमंत्री बनकर उभरे। वो नौकरशाहों से बेहतर फाइल वर्क करवाते थे और पूर्व कैबिनेट और रक्षा सचिव नरेश चंद्रा उन्हें अच्छा प्रशासक मानते थे। राजीव गांधी को सैम पित्रोदा की मदद से भारत में संचार क्रांति लाने का श्रेय भी दिया जाता है।