सिंधिया राजघराने का इतिहास बेहद दिलचस्प रहा है। पिछले पौने तीन सौ सालों के दौरान सिंधिया परिवार ने इतिहास को बनते-बिगड़ते देखा है। राजतंत्र से लोकतंत्र तक का सफर तय किया है। साल 1857 में जब पहली बार अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका गया तब जयाजीराव के पास गद्दी थी।

तहखाने में छिपा दिया खजाना: जयाजीराव को अपने पूर्वजों से विरासत में अकूत संपत्ति मिली थी। 1857 के गदर के वक़्त उन्हें लगा कि कहीं उनकी संपत्ति अंग्रेजों या विद्रोहियों के हाथ में ना चली जाए, इसलिए उन्होंने ग्वालियर के किले में अलग-अलग तहखानों में खजाने को छुपा दिया।

“बीजक” में छिपा था तहखाने का रास्ता: वरिष्ठ पत्रकार और लेखक राशिद किदवई अपनी हालिया किताब “द हाउस ऑफ सिंधियाज: अ सागा ऑफ पावर, पॉलिटिक्स एंड एंट्रीग” में लिखते हैं कि जयाजीराव अपने खजाने के एक हिस्से को तहखाने में छुपा कर रखते थे। इन तहखानों तक एक गुप्त कोड के जरिए ही पहुंचा जा सकता था, जिसे “बीजक” नाम दिया गया था।

कहा जाता है कि इस बीजक की जानकारी सिर्फ जयाजीराव के बेटे माधो राव को थी। लेकिन वह भी इसे भूल गए। साल 1886 में युवा माधो राव (माधो महाराज) ने अंग्रेज अफसर कर्नल बैनरमैन से खजाने को ढूंढने में मदद मांगी।

अंग्रेज अफसर ने ढूंढ लिया था कुछ सोना: किदवई लिखते हैं कि बैनरमैन ने खजाने को ढूंढने में दिन रात एक कर दी और कुछ सोने के सिक्के ढूंढने में कामयाब भी रहे। तब इन सिक्कों की कीमत 6.2 करोड़ रुपए के आसपास थी। हालांकि ये सिक्के तहखाने में छिपाए गए खजाने का मात्र एक हिस्सा भर थे। माधो महाराज ने बाद में भी तहखानों में छिपाए गए खजाने की खोज करते रहे, लेकिन कामयाब नहीं हुए।

आयकर की टीम भी बीजक ढूंढने पहुंची थी:
साल 1975 में आयकर विभाग की टीम जयविलास पैलेस पहुंची। बताया गया कि टीम कथित कर चोरी की जांच के लिए पहुंची है। हालांकि सियासी गलियारों में चर्चा थी कि आयकर विभाग की टीम खासतौर से वह “बीजक” ढूंढने के लिए पहुंची थी, ताकि सिंधिया परिवार के खजाने तक पहुंचा जा सके।