भारत की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने फिरोज गांधी से शादी की थी। पहले इंदिरा के पिता जवाहर लाल नेहरू भी नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी फिरोज से शादी करें। हालांकि बाद में बेटी की मर्जी के आगे उन्होंने अपना फैसला बदल लिया था। इंदिरा और फिरोज की शादी का उस समय काफी विरोध भी हुआ था। 6 मार्च को पंडित नेहरू ने घोषणा की थी कि उनकी बेटी इंदिरा की शादी 26 मार्च को आनंद भवन में होगी।

चर्चित लेखक बार्टिल फाक ने अपनी किताब ‘फिरोज: द फॉरगेटेन गांधी’ में इसके बाद आने वाली प्रतिक्रियाओं का जिक्र किया था। देखते ही देखते दोनों की शादी की खबर देशभर में फैल गई। इसके पीछे की वजह थी- एक हिंदू लड़की का पारसी से शादी करना। पंडित नेहरू और महात्मा गांधी के पास लोगों के विरोध के पत्र तक आने शुरू हो गए थे। इन सभी पत्रों में फिरोज़ गांधी के खिलाफ आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल किया जाता था। इसमें ज्यादातर पत्र हिंदू कट्टरपंथी संगठनों की तरफ से आ रहे थे। इसके बाद नेहरू ने इसको लेकर एक बयान जारी किया था।

इसमें पंडित नेहरू ने कहा था, ‘शादी एक निजी फैसला होता है। ये परिवार का फैसला होता है। माता-पिता या परिवार सिर्फ सलाह ही दे सकता है और अंत में दूल्हा-दुल्हन को ही तय करना होता है। जब मुझे पता चला कि फिरोज और इंदिरा एक-दूसरे से शादी करना चाहते हैं तो मैंने उन्हें ऐसा करना की इजाजत दे दी।’ बार्टिल लिखते हैं, नेहरू को ये साफ पता था कि उनकी बेटी की शादी का विरोध कौन कर रहा है? बावजूद इसके उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि मैं अपने विरोधियों के फैसला का सम्मान करता हूं, लेकिन मैंने बेटी का फैसला स्वीकार कर लिया है।

दूसरी तरफ, महात्मा गांधी को भी धमकी भरे पत्र लगातार मिल रहे थे। 8 मार्च 1942 को महात्मा गांधी ने अपने अखबार ‘हरिजन’ में एक लेख लिखा। गांधी ने लिखा, ‘एक भी पत्रकार को फिरोज गांधी के खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला। उनका गुनाह सिर्फ इतना है कि वह पारसी हैं। धर्म कोई कपड़ा नहीं है जिसे आप शादी के लिए बदल दें। फिरोज कोई पहली बार नेहरू परिवार से नहीं मिले हैं। वह इंदिरा की मां के आखिरी दिनों में भी वहां मौजूद थे। कमला नेहरू फिरोज को अपने बेटे की तरह मानती थीं। ऐसे में इसके विरोध का कोई मतलब नहीं बनता है।’

शादी के बाद तकरार: तमाम विरोध के बावजूद 26 मार्च 1942 को इंदिरा गांधी-फिरोज गांधी की शादी हुई। इंदिरा लखनऊ में ससुराल चली गईं। लेकिन कुछ ही समय बाद वह दोबारा इलाहाबाद आ गईं। यहीं से फिरोज और इंदिरा के बीच तल्खियों की शुरुआत हुई। इंदिरा की अपने ससुराल में अन्य लोगों से बिल्कुल नहीं बनती थी। इसलिए वह अपने पिता की कामकाज में मदद करने के लिए वह मायके आ गई थीं। दूसरी तरफ, फिरोज़ भी ‘नेशनल हेरल्ड’ अखबार की जिम्मेदारी संभालने लगे थे।