पहला व्यक्ति– नक्शे पर आपने जो लकीर खींची है वो फिरोज़पुर की रेलवे लाइन है… आपने रेलवे लाइन के बीचों बीच सीमारेखा खींच दी है। एक पटरी भारत में हो जाएगी और दूसरी पाकिस्तान में।
रेडक्लिफ– तो हम सीमारेखा को थोड़ा दक्षिण की ओर कर देते हैं।
पहला व्यक्ति– लेकिन यहां तो हिंदुओं के खेत हैं।
रेडक्लिफ– तो सीमारेखा को उत्तर की ओर कर देते हैं।
ये संवाद मशहूर ब्रिटिश नाटक ‘ड्रॉइंग द लाइन’ का एक छोटा सा हिस्सा है, जिसमें भारत-पाकिस्तान बंटवारे के कड़वे सच को मंचित किया गया है। दृश्य को पढ़कर भले ही ये अंदाज़ मजाकिया लगे, मगर सच तो ये है कि कुछ इसी हंसी मज़ाक वाले अंदाज़ के साथ 1947 में ‘सीरिल रेडक्लिफ’ (Cyril Redcliffe) ने ड्रॉइंग पेपर पर पेंसिंल चलाई थी और पलक झपकते ही भारत के दो टुकड़े हो गए थे।
करोड़ों लोग विस्थापित हुए, लाखों ज़िंदगियां बंटवारे के बाद भड़के दंगों की बली चढ़ गईं। जानकार मानते हैं कि 1947 में हुए भारत-पाकिस्तान के बीच का बंटवारा तथ्यों और तर्कों पर आधारित ना होकर हड़बड़ी में उठाया गया एक कदम था।
इस अंग्रेजी नाटक में दिखाने की कोशिश की गई है कि किस तरह भारत-पाकिस्तान के बीच रेडक्लिफ लाइन खींचने वाले सीरिल रेडक्लिफ, अपने काम से या तो नाखुश थे, या बंटवारे के परिणामों को देखकर ग्लानि में थे या फिर अपनी गलती के परिणाम के बारे में सोचकर डरे हुए थे।
नाटक के लेखक हावर्ड ब्रेंटन को इस कहानी का आइडिया अपनी भारत यात्रा के दौरान आया, जब वो केरल में एक ऐसे व्यक्ति से मिले, जिसके पास सरहद पार पाकिस्तान में छूट चुके पुश्तैनी घर की चाभियां तब भी सुरक्षित रखी थीं। उस शख्स से मिलने के बाद हॉवर्ड के मन में भारत के बंटवारे और खासकर उस शख्स को लेकर कई सवाल उठे, जिसे विभाजन रेखा खींचने की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थी यानि की सीरिल रेडक्लिफ।
ऐसा कहा जाता है कि रेडक्लिफ ने वो सभी दस्तावेज़ और नक्शे जला दिए थे, जो भारत-पाक बंटवारे के गवाह थे। रेडक्लिफ ने बंटवारे के बारे में किसी से ज़्यादा बात भी नहीं की थी। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर उन चंद लोगों में शामिल थे, जिन्होंने सीरिल रेडक्लिफ से मुलाकात की थी। नैयर खुद बंटवारे के वक्त आज के पाकिस्तान में बसे सियालकोट शहर से विस्थापित होकर सरहद पार आए थे।
नैयर से बातचीत करते हुए रेडक्लिफ ने कहा था कि “मुझे 10-11 दिन मिले थे सीमा रेखा खींचने के लिए। उस वक़्त मैंने बस एक बार हवाई जहाज़ के ज़रिए दौरा किया। न ही ज़िलों के नक्शे थे मेरे पास। मैंने देखा लाहौर में हिंदुओं की संपत्ति ज़्यादा है। लेकिन मैंने ये भी पाया कि पाकिस्तान के हिस्से में कोई बड़ा शहर ही नहीं था। मैंने लाहौर को भारत से निकालकर पाकिस्तान को दे दिया। अब इसे सही कहो या कुछ, लेकिन ये मेरी मजबूरी थी। पाकिस्तान के लोग मुझसे नाराज हैं, जबकि उन्हें ख़ुश होना चाहिए कि मैने उन्हें लाहौर दे दिया।”
इसे एक विडंबना नहीं तो और क्या कहेंगे कि जिस शख्स ने पहले कभी भारत का दौरा तक नहीं किया, उसे अचानक से बुलाकर भारत के दो टुकड़े करने की जिम्मेदारी दे दी गई। नक्शे पर रेडक्लिफ लाइन खींचने के बाद सीरिल रेडक्लिफ कभी दोबारा भारत वापस नहीं आए। ये उनका व्यावसायिक नजरिया था या अपने काम के अंजाम को देखकर मन में उठी बेचैनी, ये कोई नहीं जानता।
ब्रिटिश नाटक ‘ड्रॉइंग द लाइन’ में रेडक्लिफ का किरदार निभाने वाले अभिनेता टॉम बियर्ड के मुताबिक “रेडक्लिफ शालीन और बिना पक्षपात करने वाले इंसान थे लेकिन अंतत वो शायद अपने काम को ठीक से अंजाम दे नहीं पाए।”