साल 1996 के लोकसभा चुनाव में न तो कांग्रेस को बहुमत मिला और न ही बीजेपी को। कांग्रेस के खाते में 140 सीटें आईं तो भाजपा को 161 सीटें मिलीं। सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते भाजपा ने सरकार बनाने का दावा भी ठोक दिया और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बन गए। हालांकि उनकी सरकार बहुमत साबित नहीं कर पाई और महज 13 दिनों में गिर गई। इसके बाद शुरू हुआ असली सियासी जोड़तोड़।

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तमाम दिग्गज गैर कांग्रेसी-गैर भाजपाई नेताओं ने इसे एक मौके के तौर पर देखा और संयुक्त मोर्चा बना डाला। इसमें टीडीपी, समाजवादी पार्टी, डीएमके और सीपीआई जैसी तमाम क्षेत्रीय पार्टियां शामिल थीं। इस मोर्चे ने पीएम पद के लिए सबसे पहले ज्योति बसु से संपर्क किया, लेकिन उनकी पार्टी ने अड़ंगा लगा दिया। इसी बीच लालू यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे नेता अपनी बिसात भी बिछाते रहे, लेकिन उनके नाम पर सहमति नहीं बन पाई।

बाद में चंद्रबाबू नायडू ने कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री एचडी देवगौड़ा का नाम आगे किया। संयुक्त मोर्चा में शामिल तमाम दल उनके नाम पर सहमत हो गए। इस सरकार को बाहर से समर्थन दे रही कांग्रेस भी उनके नाम पर राजी हो गई। इस तरह 1 जून 1996 को देवगौड़ा देश के 11वें प्रधानमंत्री बने

पीएम बनने से पहले देवगौड़ा की न तो दिल्ली की सियासत में विशेष दखल था और न ही दूसरे दलों के नेताओं से खास पहचान। समस्या यहीं से शुरू हुई। संयुक्त मोर्चा में शामिल तमाम दल और उनके नेता देवगौड़ा को आसान शिकार समझने लगे और गाहे-बगाहे सरकार गिराने की धमकी देने लगे। उन्हीं में से एक थे लालू यादव, जिनका और दलों में भी खासा प्रभाव था।

बिहार भवन का चक्कर काटते थे देवगौड़ा: चर्चित लेखक रशीद किदवई अपनी किताब में लिखते हैं, ‘ एक समय ऐसा था जब देवगौड़ा को अपनी सरकार बचाने के लिए बार-बार दिल्ली में बिहार भवन भागना पड़ता था। लेकिन बाजी पलट गई। लालू यादव का नाम चारा घोटाले में आ गया और सीबीआई उनके पीछे पड़ गई। सीबीआई ने लालू से पूछताछ करने की अनुमति मांगी। लालू को लगा कि देवगौड़ा से मुलाकात कर मदद मांगी जाए।’

मौका आया तो देवगौड़ा ने निकाल ली कसर: लालू यादव, देवगौड़ा से 5 मिनट की मुलाकात के लिए वक्त मांगते रहे, लेकिन PMO की तरफ से बार-बार कुछ न कुछ बता दिया जाता था। आखिरकार कई दिनों के इंतजार के बाद लालू की देवगौड़ा से भेंट हो पाई थी।

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First published on: 02-06-2022 at 15:05 IST