स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जब देश में स्वदेशी आंदोलन का जोर था तब 1929 में चौहान परिवार के मोहन लाल दयाल ने मुंबई के विले पार्ले में ब‍िस्‍कि‍ट बनाने वाली कंपनी की बुन‍ियाद रखी। ब‍िस्‍क‍िट का नाम उन्‍होंने पारले रखा। इसके पीछे की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। देसी उत्पादों से प्रभावित होकर मोहनलाल ने देश में कनफेक्शनरी प्रोडक्ट बनाने के बारे में सोचा। इसके लिए उन्होंने जर्मनी में सीखे गए अनुभवों का सहारा लिया।

वह जर्मनी से लौटते हुए अपने साथ काम से जुड़ी जानकारी के साथ बिस्किट बनाने के लिए जरूरी कल पुर्जे भी ले आए। उस समय इसका मूल्य 60 हजार रुपये था। सिर्फ 12 लोगों के साथ उन्होंने जर्मनी से लाई मशीन के साथ ब‍िस्‍कि‍ट बनाने की शुरुआत की थी।

शुरुआत में यह पारले ग्लूको के नाम से बनाया गया। 1980 में ग्लूको की जगह सिर्फ ‘जी’ रखा गया। यानी ‘पारले-जी’। आगे चल कर कंपनी ने इस ‘जी’ को जीनियस के रूप में प्रचार‍ित क‍िया। प्रचार के ल‍िए कंपनी का इस बात पर जोर था क‍ि जीनियस लोग इस बिस्किट को खाते हैं।

1980 में ब्रिटानिया सहित कुछ कंपनियों से पारले जी को चुनौती मिली तो उसने डिब्बे के रंग को बदलकर पीला कर दिया और इसे वैक्स पेपर में बनाने लगा,लोगो को भी कलर कर दिया गया। आगे चलकर पैकेज‍िंंग में और भी बदलाव हुए।

पारले-जी के पैक पर कौन है मिस्ट्री गर्ल

दशकों से लोगों के मन में यह सवाल है कि पारले-जी के पैक पर जिस बच्ची की तस्वीर है वह मिस्ट्री गर्ल आखिर है कौन? कई लोगों का मानना था कि यह इंफोसिस की चेयरमैन सुधा मूर्ति की बचपन की तस्वीर है। कुछ लोगों ने इसे नीरू देशपांडे और गुंजन गुंडानिया से भी जोड़ा। लेक‍िन, पारले जी के ग्रुप प्रोडक्ट मैनेजर मयंक शाह ने स्‍पष्‍ट क‍िया कि यह किसी की वास्तविक तस्वीर नहीं है। इसे एवरेस्ट क्रिएटिव के कलाकार मगनलाल दहिया ने इलेस्ट्रेट किया था।

भारत से बाहर आठ देशों में बनता है पारले-जी

पारले-जी दुन‍िया के कई देशों में ब‍िकता है और कई मुल्‍कों में बनाया भी जाता है। कंपनी की वेबसाइट के मुताब‍िक कैमरून, नाइजीरिया, घाना, इथियोपिया, केन्या, आइवरी कोस्ट और नेपाल में भी कंपनी की मैन्युफैक्चर‍िंंग यून‍िट है। कंपनी ने पांच साल पहले (2018) में मैक्‍स‍िको में भी एक प्‍लांट लगाया है।