Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021 के एक प्रावधान को चुनौती देने वाली एक महत्वपूर्ण संवैधानिक चुनौती पर सुनवाई के लिए सहमत हो गया है, जो द्वितीयक बांझपन का सामना कर रहे विवाहित जोड़ों को दूसरा बच्चा पैदा करने के लिए सरोगेसी का उपयोग करने से रोकता है। पीठ के समक्ष मुख्य प्रश्न यह है कि क्या यह विधायी प्रतिबंध संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत नागरिकों के प्रजनन विकल्प और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार पर राज्य द्वारा असंवैधानिक अतिक्रमण है।

याचिका में विशेष रूप से 2021 अधिनियम की धारा 4(iii)(C)(II) को लक्षित किया गया है। यह धारा किसी भी इच्छुक दंपत्ति को सरोगेसी का लाभ उठाने से रोकती है यदि उनका कोई जीवित बच्चा है, चाहे वह बच्चा जैविक रूप से पैदा हुआ हो, गोद लिया गया हो, या पहले किसी सरोगेसी प्रक्रिया के माध्यम से पैदा हुआ हो।

सरोगेसी (किराये की कोख) एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें एक महिला (सरोगेट मां) किसी दूसरे जोड़े या व्यक्ति (इच्छुक माता-पिता) के बच्चे को जन्म देती है।

द्वितीयक बांझपन एक ऐसी स्थिति है जिसमें एक या एक से अधिक बच्चों के सफल जन्म के बाद, दोबारा गर्भधारण करने या गर्भावस्था को पूर्ण करने में कठिनाई होती है। कोई भी इच्छुक दंपति, जिसके पास जैविक रूप से, गोद लेने के माध्यम से या पहले से सरोगेसी के जरिये कोई जीवित बच्चा है, दूसरे बच्चे के लिए सरोगेसी प्रक्रिया का लाभ नहीं उठा सकता है। हालांकि यदि जीवित बच्चा मानसिक या शारीरिक रूप से दिव्यांग है या किसी जानलेवा विकार या घातक बीमारी से ग्रस्त है जिसका कोई स्थायी इलाज नहीं है, तो दंपति जिला चिकित्सा बोर्ड से चिकित्सा प्रमाण-पत्र प्राप्त करने और उपयुक्त प्राधिकारी के अनुमोदन के बाद दूसरे बच्चे के लिए सरोगेसी प्रक्रिया का लाभ उठा सकते हैं।

याचिकाकर्ताओं की ओर से अधिवक्ता मोहिनी प्रिया ने तर्क दिया कि सरकार व्यक्तियों के निजी जीवन और प्रजनन संबंधी विकल्पों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। उन्होंने तर्क दिया कि द्वितीयक बांझपन एक भावनात्मक रूप से चुनौतीपूर्ण और चिकित्सकीय रूप से मान्यता प्राप्त स्थिति है, जो अक्सर प्राथमिक बांझपन जितनी ही कष्टदायक होती है, और राज्य परिवार के आकार पर कृत्रिम सीमा नहीं लगा सकता, खासकर जब भारत में “एक-संतान नीति” लागू नहीं है। याचिकाकर्ताओं ने बताया कि हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम जैसे मौजूदा कानून, जैविक बच्चे वाले दंपत्ति को दूसरा बच्चा गोद लेने की अनुमति देते हैं, जो सरोगेसी प्रतिबंध की भेदभावपूर्ण प्रकृति को उजागर करता है।

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हालांकि, केंद्र सरकार ने लगातार इस कानून का बचाव किया है। उसका कहना है कि सरोगेसी एक वैधानिक अधिकार है, न कि मौलिक अधिकार, क्योंकि इस प्रक्रिया में किसी अन्य महिला के शरीर (सरोगेट मां के गर्भ) का उपयोग शामिल है। केंद्र का तर्क है कि यह कानून सुविचारित है, जिसका उद्देश्य सरोगेट माताओं के शोषण और व्यावसायीकरण को रोकना है, और यह सुनिश्चित करना है कि सरोगेसी केवल उन दम्पतियों के लिए अंतिम उपाय बनी रहे जो वास्तव में किसी अन्य माध्यम से गर्भधारण नहीं कर सकते।

जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने द्वितीयक बांझपन का सामना कर रहे एक दंपति की ओर से पेश वकील की दलील का संज्ञान लिया था। जस्टिस नागरत्ना ने जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने सुनवाई के दौरान मौखिक रूप से कहा कि देश की बढ़ती जनसंख्या को देखते हुए इस प्रावधान के तहत लगाया गया प्रतिबंध ‘‘उचित’’ है। वकील ने दलील दी कि सरकार नागरिकों के निजी जीवन और प्रजनन संबंधी विकल्पों में हस्तक्षेप नहीं कर सकती।

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