Supreme Court News: करीब 34 साल पहले कथित कदाचार के आरोपों पर एक होटल कर्मचारी को नौकरी से निकाल दिया गया था। इस मामले में वह लंबे समय तक न्याय की लड़ाई के लिए अदालतों के चक्कर काटता रहा। अब तीन दशक से अधिक समय बाद सुप्रीम कोर्ट ने उसके पक्ष में फैसला सुनाते हुए 50 प्रतिशत बकाया वेतन बहाल कर दिया है। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह रही कि कर्मचारी इस फैसले को देखने के लिए जीवित नहीं रह सका।
जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस उज्ज्वल भुयान की पीठ इस मामले की सुनवाई कर रही थी। यह याचिका कर्मचारी के कानूनी प्रतिनिधियों ने दायर की थी। इसमें राजस्थान हाई कोर्ट की खंडपीठ के उस आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें कर्मचारी को दिए गए 50 प्रतिशत बकाया वेतन को रद्द कर दिया गया था।
डिवीजन बेंच के आदेश को रद्द करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी सजा से व्यक्ति की छवि खराब हो जाती है, जिससे उसे दोबारा नौकरी मिलना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में जब हाई कोर्ट के एकल न्यायाधीश ने बकाया वेतन को पहले ही 50 प्रतिशत तक सीमित कर दिया था, तो उस आदेश में दखल देने की कोई जरूरत नहीं थी।
क्या है मामला?
यह मामला 1978 का है, जब दिनेश चंद्र शर्मा ने एक होटल में रूम अटेंडेंट के रूप में काम करना शुरू किया था। दुर्व्यवहार के आरोपों के कारण जुलाई 1991 में उनकी नौकरी समाप्त कर दी गई थी।
औद्योगिक विवाद के बाद, श्रम न्यायालय ने प्रबंधन की जांच को अनुचित पाया। अदालत में आरोपों को साबित करने का अवसर दिए जाने के बावजूद, प्रबंधन कोई सबूत पेश करने में विफल रहा। परिणामस्वरूप, दिसंबर 2015 में, श्रम न्यायालय ने शर्मा को पूरे बकाया वेतन सहित बहाल करने का आदेश दिया।
राजस्थान हाई कोर्ट की एकल पीठ ने कर्मचारी को मिलने वाले पिछले वेतन को घटाकर 50 प्रतिशत कर दिया था। लेकिन बाद में खंडपीठ ने यह राहत भी खत्म कर दी। खंडपीठ ने कहा कि कर्मचारी यह साबित नहीं कर सका कि इस दौरान वह कहीं और कमाई वाली नौकरी नहीं कर रहा था।
कोर्ट का फैसला
अदालत ने कहा कि किसी कामगार के लिए यह साबित करना कोई सख्त या अनिवार्य नियम नहीं है कि वह इस दौरान कहीं और कमाई वाली नौकरी नहीं कर रहा था। कोर्ट ने यह भी कहा कि हर मामले का फैसला उसके अपने तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर किया जाना चाहिए।
अदालत ने यह भी कहा कि कर्मचारी ने अपने हलफनामे में बताया था कि वह इस बीच के समय में कहीं काम नहीं कर रहा था। लेकिन इस हलफनामे का खंडन करने के लिए कोई सबूत पेश नहीं किया गया था।
न्यायालय ने कहा कि मामले के तथ्यों को देखते हुए हाई कोर्ट के एकल न्यायाधीश का फैसला सही और उचित था। इसका कारण यह था कि कर्मचारी ने बहुत लंबे समय तक सेवा की थी और उम्र की सीमा पार करने के बाद उसके लिए किसी सरकारी विभाग या सार्वजनिक उपक्रम में नौकरी पाना संभव नहीं था। अदालत ने फैसला सुनाया कि जीवनयापन के लिए छोटे-मोटे काम करना बकाया वेतन देने से इनकार करने का आधार नहीं हो सकता, खासकर तब जब उसकी सेवा समाप्ति दंड के रूप में की गई हो।
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अदालत ने फैसला सुनाया कि इसमें कोई शक नहीं कि कोई व्यक्ति जीवनयापन के लिए छोटे-मोटे काम कर सकता है, लेकिन यह बकाया वेतन देने से इनकार करने का आधार नहीं हो सकता, खासकर तब जब उसकी सेवा समाप्ति सजा के तौर पर की गई हो। क्योंकि सजा से व्यक्ति पर कलंक लगता है, जिससे दोबारा रोजगार मिलना मुश्किल हो जाता है।
कोर्ट ने कहा कि यह सच है कि कोई व्यक्ति गुज़ारा करने के लिए छोटे-मोटे काम कर सकता है, लेकिन केवल इसी कारण से बकाया वेतन देने से मना नहीं किया जा सकता। खासकर तब, जब उसकी नौकरी सजा के रूप में खत्म की गई हो। अदालत ने यह भी कहा कि सजा लगने से व्यक्ति की छवि खराब होती है, जिससे उसे दोबारा नौकरी मिलना और मुश्किल हो जाता है। अतः न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली और एकल पीठ के निर्देशों को बहाल करते हुए खंडपीठ के आदेश को रद्द कर दिया।
