सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक मामले में एक महिला की याचिका स्वीकार कर ली। महिला ने कहा कि उसके दिवंगत पति की नौकरी के दौरान जमा हुई सामान्य भविष्य निधि (GPF) की रकम उसे मिलनी चाहिए, भले ही पति की मां को ही नामित (Nominee) किया गया हो।

जस्टिस संजय करोल और जस्टिस एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने कहा कि जब कोई कर्मचारी परिवार बनाता है (जैसे शादी हो जाती है), तो पहले भरा गया नामांकन फॉर्म अपने-आप मान्य नहीं रहता। यानि, अगर कर्मचारी ने परिवार बनने से पहले किसी को नामित किया था, तो वह नामांकन बाद में वैध नहीं माना जाता। ऐसी स्थिति में GPF की रकम परिवार के सभी पात्र सदस्यों में बराबर हिस्से में बांटी जानी चाहिए।

पीठ ने पत्नी की याचिका मंज़ूर करते हुए कहा कि हालांकि, दिवंगत कर्मचारी ने अपनी मां को नामित किया था, लेकिन नामांकन फॉर्म में मौजूद शर्तों के अनुसार कर्मचारी की मृत्यु के समय वह नामांकन मान्य नहीं रह गया।

अदालत ने यह भी साफ कहा कि GPF का नामांकन फॉर्म या उसमें भरा गया कोई भी हिस्सा, मां को पत्नी से ज्यादा अधिकार नहीं देता।

सरकारी नौकरी करने वाले पति ने 2003 में अपनी पत्नी (याचिकाकर्ता) से शादी की। शादी के बाद उसने कई अन्य नौकरी से जुड़ी सुविधाओं में पत्नी को ही लाभ लेने वाला (नॉमिनी) बनाया, लेकिन GPF (सामान्य भविष्य निधि) वाले नामांकन में बदलाव नहीं किया और वह पहले जैसा ही बना रहा।

शीर्ष अदालत ने इस बात पर प्रकाश डाला कि प्रासंगिक नियम वास्तव में यह प्रावधान करते हैं कि जब कोई नामांकन अमान्य हो जाता है, तो राशि सभी पात्र सदस्यों के बीच वितरित की जानी चाहिए और कहा कि पति के पास 2003 में अपनी शादी और 2021 में उनकी मृत्यु के बीच जीपीएफ के लिए नामांकन को बदलने का अवसर था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।

अदालत ने यह स्पष्ट किया कि नियमों के अनुसार, अगर नामांकन अमान्य हो जाए, तो जमा हुई GPF की रकम परिवार के सभी पात्र सदस्यों में बांटी जाती है। अदालत ने यह भी कहा कि पति के पास 2003 में शादी होने से लेकर 2021 में उनकी मृत्यु तक, GPF का नामांकन बदलने का पूरा मौका था, लेकिन उन्होंने नामांकन बदलने की कोई कोशिश नहीं की।

पीठ ने कहा कि GPF के नियम बिल्कुल साफ हैं कि अगर कर्मचारी का परिवार बन जाता है (जैसे शादी हो जाती है), तो मां के नाम किया गया नामांकन स्वतः अमान्य हो जाता है। इसलिए कोर्ट ने माना कि मां के पक्ष में किया गया नामांकन 2003 में, यानी शादी के समय ही, अमान्य हो गया था।

अदालत ने यह भी कहा कि अधिकारियों की जिम्मेदारी नहीं होती कि वे कर्मचारी को नामांकन बदलने या रद्द करने के लिए याद दिलाएं। यह कर्मचारी का अपना कर्तव्य है कि जरूरत पड़ने पर वह खुद ही नामांकन में बदलाव करे।

आदेश में कहा गया है कि अगर कोई कर्मचारी समय पर अपना नामांकन नहीं बदलता या लापरवाही करता है, तो ऐसी स्थिति के लिए नियम पहले से बने हुए हैं। इन नियमों में साफ बताया गया है कि उसके बाद परिवार के जीवित सदस्यों में पैसा कैसे बांटा जाएगा।

अदालत ने कहा कि CAT (केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण) के पुराने आदेश के अनुसार, पत्नी को GPF की आधी रकम पहले ही मिल चुकी है। अदालत ने अब निर्देश दिया कि बाकी बची आधी राशि कर्मचारी की मां को दी जाए।

क्या है पूरा मामला?

जुलाई 2021 में जिन सरकारी कर्मचारी का देहांत हुआ, उनकी पत्नी को पति की नौकरी से मिलने वाले सभी लाभ मिल गए, कुल मिलाकर 60 लाख रुपये। लेकिन जब पत्नी ने पति की GPF (सामान्य भविष्य निधि) की रकम लेने की कोशिश की, तो संबंधित अधिकारी ने उसे देने से इनकार कर दिया, यह कहते हुए कि नामांकन में केवल पति की मां को ही लाभ लेने का हक है।

जिसके बाद पत्नी ने CAT (केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण) में याचिका दायर की। CAT ने फैसला किया कि GPF की रकम पत्नी और मां के बीच बराबर-बराबर बांटी जाए। लेकिन बाद में बॉम्बे हाई कोर्ट ने CAT के इस फैसले को रद्द कर दिया।

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इसके बाद पत्नी ने हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। उसने तर्क दिया कि मूल नामांकन फॉर्म में लिखा है कि पति द्वारा परिवार बनाने से पहले किया गया कोई भी नामांकन अमान्य होगा। नियमों के अनुसार, ऐसी स्थिति में GPF की रकम परिवार के सभी पात्र सदस्यों में बराबर बांटी जानी चाहिए।

दूसरी तरफ, कर्मचारी की मां ने कहा कि उसके बेटे ने अपनी पत्नी को अन्य नौकरी से मिलने वाले लाभों के लिए नामित किया, लेकिन GPF की रकम में उसे कोई हिस्सा नहीं दिया। यानि, उन्होंने तर्क दिया कि बेटे का इरादा स्पष्ट रूप से यह था कि GPF में सिर्फ मां को फायदा मिले, पत्नी को नहीं।

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