इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सितंबर 2005 में बरेली हिंसा में शामिल आरोपी की जमानत याचिका को खारिज कर दिया। हाई कोर्ट ने सख्त टिप्पणी करते हुए कहा, “गुस्ताख-ए-नबी की एक सजा, सर तन से जुदा, सर तन से जुदा” का नारा लगाना कानून के अधिकार और संप्रभुता को सीधी चुनौती देना है और भारत की संप्रभुता और अंखडता के लिए गंभीर खतरा है, क्योंकि यह हिंसा और सशस्त्र विद्रोह को बढ़ावा देता है।
जस्टिस अरुण कुमार सिंह देशवाल ने टिप्पणी करते हुए कहा कि इस तरह के नारे का प्रयोग न केवल भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) की धारा 152 के तहत दंडनीय है , जो भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने वाले कृत्यों से संबंधित है, बल्कि यह स्वयं इस्लाम के मूल सिद्धांतों के भी विरुद्ध है।
हाई कोर्ट ने टिप्पणी की, “गुस्ताख-ए-नबी की एक सजा, सर तन से जुदा, सर तन से जुदा” का नारा लगाना, जिसमें नबी (पैगंबर) का अपमान करने पर सिर कलम करने की सजा का प्रावधान है, भारत की संप्रभुता और अखंडता के साथ-साथ भारतीय कानूनी व्यवस्था को चुनौती देने के बराबर है, जो गंभीर संवैधानिक उद्देश्य पर आधारित है और लोकतांत्रिक सिद्धांतों में निहित है।”
कोर्ट ने आगे कहा कि जब कोई भीड़ ऐसे नारे लगाती है जिसमें मृत्युदंड की घोषणा की जाती है जो भारतीय कानून के तहत निर्धारित सजा के बिल्कुल विपरीत है, तो यह न केवल संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन करता है, बल्कि भारतीय कानूनी प्रणाली के वैध अधिकार को भी खुले तौर पर चुनौती देता है।
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि नारे और घोषणाएं सभी धर्मों में मौजूद हैं और आमतौर पर इनका उपयोग ईश्वर या धार्मिक हस्तियों के प्रति भक्ति, सम्मान या श्रद्धा व्यक्त करने के लिए किया जाता है।
इसमें कहा गया है, “जैसे मुसलमानों में ‘नारा-ए-तकबीर’ के बाद ‘अल्ला हू अकबर’ बोला जाता है, जिसका अर्थ है कि ईश्वर सर्वोच्च है और इस पर कोई विवाद या आपत्ति नहीं है। इसी प्रकार, सिख धर्म में ‘जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल’ का नारा भी ईश्वर को परम, शाश्वत वास्तविकता के रूप में स्वीकार करना है और इस आह्वान को गुरु गोविंद सिंह जी ने लोकप्रिय बनाया था। इसी प्रकार, हिंदू लोग भी हर्षोल्लास और आनंदमय क्षणों में ‘जय श्री राम’ या ‘हर हर महादेव’ जैसे भक्तिपूर्ण नारों लगाते हैं।”
कोर्ट ने स्पष्ट किया कि किसी व्यक्ति या भीड़ द्वारा इस तरह के भक्तिपूर्ण नारे लगाना या जपना तब तक अपराध नहीं है जब तक कि इनका जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण ढंग से अन्य धर्मों के लोगों को धमकाने, डराने या उकसाने के लिए उपयोग न किया जाए।
इसमें आगे यह भी कहा गया है कि यद्यपि ‘गुस्ताख-ए-नबी की एक सजा सर तन से जुदा, सर तन से जुदा’ नारे का कुरान या मुसलमानों से संबंधित किसी अन्य धार्मिक ग्रंथ में कोई उल्लेख नहीं है, फिर भी कई मुस्लिम व्यक्ति इसके सही अर्थ और प्रभाव को जाने बिना इस नारे का व्यापक रूप से उपयोग कर रहे हैं।”
ऐतिहासिक घटनाक्रमों का हवाला देते हुए हाई कोर्ट ने याद दिलाया कि अविभाजित भारत में हिंदू-मुस्लिम तनाव के दौरान, ब्रिटिश सरकार ने 1927 में ईशनिंदा कानून लागू किए थे। इसमें पाकिस्तान में बाद में किए गए संशोधनों का भी उल्लेख किया गया, जहां कुरान और पैगंबरों का अपमान करने पर मृत्युदंड का प्रावधान करने के लिए ईशनिंदा कानूनों को मजबूत किया गया था।
विवादास्पद नारे की उत्पत्ति को लेकर न्यायालय ने टिप्पणी की, इसके बाद, वर्ष 2011 में, पाकिस्तान में ईशनिंदा कानून के तहत एक ईसाई महिला, एशिया बीबी को दोषी ठहराया गया। लंदन में शिक्षित पंजाब के राज्यपाल सलमान तासीर ने एशिया बीबी का समर्थन किया, जिससे पाकिस्तान में भारी अशांति फैल गई और मुल्ला खादिम हुसैन रिजवी के नेतृत्व में भीड़ सड़कों पर उतर आई और प्रदर्शन करने लगी। रिजवी ने पहली बार “गुस्ताख-ए-नबी की एक सजा, सर तन से जुदा, सर तन से जुदा” का नारा लगाया और इसके बाद यह नारा भारत सहित अन्य देशों में भी फैल गया और कुछ मुसलमानों द्वारा अन्य धर्मों के लोगों को डराने और राज्य की सत्ता को चुनौती देने के लिए इसका व्यापक रूप से दुरुपयोग किया गया।
साथ ही, उच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि पैगंबर मोहम्मद ने अपमान किए जाने पर भी करुणा और दया का भाव दिखाया। न्यायालय ने कहा कि पैगंबर ने कभी भी ऐसे व्यक्तियों का सिर कलम करने की इच्छा नहीं की और न ही इसका आदेश दिया।
इसलिए न्यायालय ने यह टिप्पणी की कि यदि इस्लाम का कोई अनुयायी पैगंबर का कथित रूप से अपमान करने के आरोप में किसी व्यक्ति का सिर कलम करने की मांग करते हुए नारे लगाता है, तो यह स्वयं पैगंबर मोहम्मद की शिक्षाओं और आदर्शों का अपमान करने के बराबर है।
क्या है पूरा मामला?
हाई कोर्ट ने यह टिप्पणियां सितंबर, 2005 में बरेली में हुई हिंसा के संबंध में एक आरोपी द्वारा दायर जमानत याचिका की सुनवाई के दौरान की गईं। यह घटना तब घटी जब इत्तेफाक मिन्नत परिषद के अध्यक्ष मौलाना तौकीर रजा ने कथित तौर पर राज्य के खिलाफ विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया और उस पर मुस्लिम युवाओं के खिलाफ अत्याचार और झूठे मामले दर्ज करने का आरोप लगाया। बिहारिपुर में एक सभा के दौरान कथित तौर पर ‘सर तन से जुदा’ के नारे लगाए गए थे।
इसके बाद भीड़ और पुलिस के बीच हुई हिंसक झड़पों के बाद 25 नामजद व्यक्तियों और लगभग 1,700 अज्ञात व्यक्तियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई। बाद में कई आरोपियों को गिरफ्तार किया गया और जांच के दौरान अज्ञात व्यक्तियों की पहचान की गई। आरोपियों में से एक, रिहान ने अपनी जमानत याचिका में दावा किया कि उसे इस मामले में झूठा फंसाया गया है।
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हालांकि, हाई कोर्ट ने पाया कि मामले की डायरी में पर्याप्त तथ्य मौजूद हैं जिससे यह पता चलता है कि आरोपी एक गैरकानूनी सभा का हिस्सा था, जिसने भारतीय कानूनी व्यवस्था के अधिकार को चुनौती देने वाले आपत्तिजनक नारे लगाए और हिंसा में भी लिप्त रहा, जिसके परिणामस्वरूप पुलिसकर्मियों को चोटें आईं और सार्वजनिक और निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचा।
इलाहाबाद हाई कोर्ट में अपने फैसले में कहा कि आरोपी को जमानत पर रिहा करने का कोई आधार नहीं हैं। इसके साथ ही कोर्ट ने आरोपी की जमानत याचिका खारिज कर दी।
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