Ambaji Temple Dispute: गुजरात हाई कोर्ट ने अंबाजी मंदिर से जुड़ा करीब 70 साल पुराना विवाद खत्म कर दिया है। अदालत ने साफ कहा कि अरसूरी अंबाजी मंदिर एक सार्वजनिक धार्मिक संस्था है। यानी यह मंदिर किसी शाही परिवार की निजी संपत्ति नहीं है। दंता के शाही परिवार ने मंदिर पर अपना अधिकार और कुछ खास विशेषाधिकार होने का दावा किया था, लेकिन अदालत ने इस दावे को खारिज कर दिया।

जस्टिस हेमंत एम. प्राच्छक दंता शाही परिवार के वारिसों की 2008 के जिला न्यायालय के उस आदेश के खिलाफ दायर याचिका की सुनवाई कर रहे थे, जिसमें मंदिर के स्वामित्व और विशेष विशेषाधिकारों को चुनौती देने वाले उनके आवेदन को खारिज कर दिया गया था।

परिवार की याचिका पर सुनवाई करते हुए उच्च न्यायालय ने उस मांग को भी खारिज कर दिया, जिसमें शाही परिवार ने नवरात्रि के आठवें दिन विशेष पूजा करने, मंदिर में हवन करने और देवी के सामने चामर लहराने का वंशानुगत अधिकार होने का दावा किया था। अदालत ने साफ कहा कि ऐसे खास अधिकार मान्य नहीं हैं, खासकर जब इनके कारण आम श्रद्धालुओं को मंदिर परिसर में प्रवेश से रोका जाए या उन्हें बाहर किया जाए।

कोर्ट ने 1957 में आए सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले का हवाला दिया। उस फैसले में कहा गया था कि याचिकाकर्ता का मंदिर या मंदिर की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं है। अदालत ने स्पष्ट किया कि जब कोई संपत्ति देवता के नाम वसीयत कर दी जाती है, तो वह उसी देवता की संपत्ति मानी जाती है। इसके बाद दंत राज्य के उत्तराधिकारी मंदिर या उसकी संपत्ति पर अपना अधिकार का दावा नहीं कर सकते, क्योंकि यह सार्वजनिक संपत्ति होती है।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी का हवाला देते हुए उच्च न्यायालय ने कहा कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 363 के अनुसार, विलय समझौतों से जुड़े विवादों में अदालतें सीधे हस्तक्षेप नहीं कर सकतीं। ऐसे विवादों के निपटारे के लिए अलग व्यवस्था बनाई गई है। इसलिए अदालत ने साफ कहा कि अपीलकर्ता का यह कहना कि मंदिर उनकी निजी संपत्ति है, कानूनन सही नहीं है और इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।

अदालत ने कहा कि वह चैरिटी कमिश्नर और जिला न्यायाधीश के फैसले से पूरी तरह सहमत है। अदालत के अनुसार, किसी परिवार को खास अधिकार देना, विशेष अवसरों पर अलग से पूजा करने की अनुमति देना, गर्भगृह में प्रवेश देना या देवी अंबा के सामने चामर करने की इजाजत देना कानून के खिलाफ, गलत और अनुचित है।

क्या है पूरा मामला?

यह मामला 2009 में दायर की गई एक याचिका से जुड़ा है, जो बॉम्बे पब्लिक ट्रस्ट अधिनियम की धारा 72(4) के तहत दाखिल की गई थी। इस याचिका में 2008 के जिला न्यायालय के उस आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें मंदिर और उसकी संपत्ति को सार्वजनिक ट्रस्ट के रूप में दर्ज करने और याचिकाकर्ता को दिए गए विशेष अधिकारों को चुनौती देने वाले आवेदन को खारिज कर दिया गया था।

स्वामित्व के दावे के अलावा, वारिसों ने अदालत से यह भी मांग की कि उनके पुराने वंशानुगत अधिकारों और विशेष सुविधाओं को बनाए रखा जाए। उनका कहना था कि वे लंबे समय से इन अधिकारों का उपयोग करते आ रहे हैं। इन मांगों में नवरात्रि के आठवें दिन विशेष पूजा करने और मंदिर में हवन करने, देवी के सामने चामर लहराने का अधिकार, और यह अधिकार शामिल था कि जब वे पूजा या देवी की सेवा कर रहे हों, तब आम श्रद्धालुओं को मंदिर परिसर में प्रवेश न दिया जाए।

यह विवाद भारत की आज़ादी से पहले का है और आज़ादी के बाद भी चलता रहा। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि देवी अम्बा भवानी महाराणा के पूर्वजों की कुलदेवी थीं और उन्होंने ही लगभग 1136 में इस मंदिर की स्थापना की थी। उनका यह भी दावा है कि मंदिर और उससे जुड़ी संपत्ति शासक की निजी संपत्ति थी, न कि राज्य की।

इस विवाद की शुरुआत भारत की आज़ादी के समय और 5 अक्टूबर 1948 के विलय समझौते से जुड़ी है। मंदिर और उसकी संपत्ति के स्वामित्व को लेकर कानूनी लड़ाई साल 1953 में शुरू हुई। उस समय महाराणा ने बॉम्बे उच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी और सरकार से मंदिर पर कब्जा न करने की मांग की थी। उनका कहना था कि विलय समझौते के अनुसार यह मंदिर उनकी निजी संपत्ति है।

1957 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि याचिकाकर्ता का मंदिर या उसकी संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं है। अदालत ने कहा कि महाराणा मंदिर पर अपना स्वामित्व साबित नहीं कर पाए थे। इसलिए उन्हें मंदिर का कब्जा छोड़ने और मंदिर से जुड़े हिसाब-किताब राज्य को सौंपने का आदेश दिया गया था।

अदालत का फैसला

अदालत ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय और इसी न्यायालय के पहले दिए गए आदेशों को देखते हुए, जब तक अपीलकर्ता मंदिर या उसकी संपत्ति पर अपना अधिकार साबित नहीं करता, तब तक उसे अश्विन माह की नवरात्रि के आठवें दिन कोई विशेष पूजा करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।

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कोर्ट ने कहा कि यह बात साफ है कि आज तक दंता राज्य के पूर्व शासकों के उत्तराधिकारी किसी भी अदालत में यह साबित नहीं कर पाए हैं कि विवादित संपत्ति, यानी अरसूरी अंबा माता मंदिर, उनकी निजी संपत्ति है।

अदालत ने आगे कहा कि यह पूरी तरह साफ है कि अरसूरी अंबाजी मंदिर एक सार्वजनिक मंदिर है। इसलिए गुजरात (बॉम्बे) पब्लिक ट्रस्ट अधिनियम के तहत मंदिर ट्रस्ट का पंजीकरण सही है और इसे बनाए रखा जाएगा। इस कारण अपीलकर्ता द्वारा दायर पहली याचिका को खारिज किया जाता है।

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