इलाहाबाद हाई कोर्ट ने फैसला दिया है कि कोई भी शख्स जो किसी आपराधिक मामले में कोई पक्ष नहीं है, उसे उस मामले में जमानत रद्द करने की मांग करने का कोई अधिकार नहीं है। हाई कोर्ट में जस्टिस कृष्ण पहल की बेंच ने जमानत याचिका को रद्द करने के लिए दायर की गई एक अर्जी को खारिज कर दिया।
इसके साथ ही, याचिका दायर करने वाले पर 25,000 रुपये का जुर्माना भी लगा दिया।
क्या है यह पूरा मामला?
इस मामले में निखिल कुमार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में जमानत आदेश को रद्द करने की याचिका दाखिल की थी। जमानत का यह आदेश 16 मार्च, 2016 को दूसरे पक्ष के लिए दिया गया था और इस मामले में पुलिस स्टेशन साहिबाबाद, जिला गाजियाबाद में बीएनएस की धारा 302 (हत्या) और 120-बी (आपराधिक साजिश) के तहत केस दर्ज था।
‘आधार के इस्तेमाल से किया जा सकता है उम्र का सत्यापन’
निखिल कुमार के वकील राम प्रकाश द्विवेदी ने अदालत के सामने दलील दी थी कि उनके मुवक्किल ‘पीड़ित व्यक्ति’ हैं क्योंकि जिस शख्स को जमानत मिली थी, उसने 2017 में आवेदक निखिल कुमार के पिता की हत्या कर दी थी और इस मामले में एफआईआर भी दर्ज की गई थी। जबकि आरोपित शख्स को 2012 के एक मामले में जमानत मिली थी।
निखिल कुमार के अधिवक्ता ने अदालत को यह भी बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने 18 जुलाई, 2022 को हाई कोर्ट के द्वारा 2019 में दी गई जमानत को रद्द कर दिया था और इस मामले पर फिर से विचार करने के लिए इसे अदालत के पास भेज दिया गया था। इस मामले में आरोपी को 2017 में हत्या के एक मामले में जमानत मिली थी।
यह साफ है कि 2012 और 2017 के दोनों मामले पूरी तरह अलग थे।
आवेदनकर्ता निखिल कुमार का अदालत से यह कहना था कि अगर आरोपी को हत्या के मामले में फिर से जमानत मिलती है तो वह एक बार फिर अपराध कर सकता है। यह भी दलील दी गई थी कि अभियुक्त का लंबा आपराधिक इतिहास है।
‘अब देश इसे बर्दाश्त नहीं करेगा, यह व्यवस्था पर एक धब्बा है’
दूसरे पक्ष ने किया पुरजोर विरोध
निखिल कुमार के वकील की दलीलों का दूसरे पक्ष की ओर से पुरजोर विरोध किया गया। दूसरे पक्ष के वकील आनंद पति तिवारी ने कहा कि आवेदनकर्ता का 2012 के मामले से कोई लेना-देना नहीं है क्योंकि आवेदनकर्ता 2012 के मामले में ना तो गवाह है और ना ही पीड़ित।
दोनों पक्षों की दलील सुनने के बाद जस्टिस कृष्ण पहल ने इस बात की जांच की कि क्या आवेदक 2012 वाले मामले में किसी तरह का दखल दे सकता है? अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ता इस मामले से पूरी तरह अलग है क्योंकि वह ना तो मुखबिर है और ना ही पीड़ित।
अदालत ने ‘पीड़ित’ शब्द की व्याख्या करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता इस मामले से पूरी तरह अनजान है और ‘पीड़ित’ शब्द का मतलब केवल उस व्यक्ति से है जिसे उस मामले में किसी तरह का नुकसान हुआ हो। अदालत ने कहा कि आवेदक के पास जमानत रद्द करने की मांग करने का कोई हक नहीं है।
इस तरह हाई कोर्ट ने इस मामले में स्पष्ट किया कि किसी भी ‘बाहरी’ शख्स के द्वारा आपराधिक कार्यवाही में किसी भी तरह के आवेदन को स्वीकार नहीं किया जा सकता और इसलिए अदालत को 2012 के मामले में दूसरे पक्ष को दी गई जमानत के आदेश को रद्द करने का कोई आधार नहीं मिला है।
इसके बाद अदालत ने याचिकाकर्ता पर 25000 रुपये का जुर्माना लगा दिया और याचिका को खारिज कर दिया।
‘जमानत रद्द भी की जा सकती’, पेश न होने पर बंगाल के पूर्व मंत्री पार्थ चटर्जी को कोर्ट की चेतावनी
