बॉम्बे हाईकोर्ट ने एक मामले में फैसला सुनाते हुए 55 वर्षीय व्यक्ति को स्थायी नौकरी और साल 2006 के बाद के सारे फायदे देने का आदेश दिया है। बॉम्बे हाईकोर्ट ने सुनवाई के दौरान माना कि एचआईवी पॉजिटिव होने की वजह से पीड़ित को स्थायी नौकरी न देना मनमाना, भेदभावपूर्ण और संविधान के आर्टिकल 14 व 16 का उल्लंघन है।
जस्टिस संदीप वी मार्ने ने इंडस्ट्रियल कोर्ट के आदेश के खिलाफ कर्मी की याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि इंडस्ट्रियल कोर्ट ने 2006 से याचिकाकर्ता को स्थायी कर्मचारी घोषित करने और 2006 से 2017 के बीच उसके रोजगार के दौरान परिणामी लाभों का भुगतान करने की उसकी शिकायत को खारिज कर दिया था।
‘मनमाना, भेदभावपूर्ण और संविधान के आर्टिकल 14 व 16 का उल्लंघन’
कोर्ट ने कहा,”एचआईवी पॉजिटिव को आधार मानकर याचिकाकर्ता को नौकरी के स्थायीकरण का लाभ न देना, मनमाना, भेदभावपूर्ण और संविधान के आर्टिकल 14 व 16 का उल्लंघन है।”
कोर्ट ने आगे कहा कि याचिकाकर्ता ने अपने साथियों को स्थायी पद दिए जाने की तारीख से ही स्थायी पद का लाभ दिए जाने का मामला साबित कर दिया है और इंडस्ट्रियल कोर्ट ने केस को खारिज करने में स्पष्ट रूप से गलती की है।
कोर्ट ने आगे कहा,”याचिकाकर्ता गरीब सफाईकर्मी है, जिसे गलत तरीके से एचआईवी पॉजिटिव होने के आधार पर स्थायी पद का लाभ नहीं दिया गया। साथ ही अस्पताल ने स्थायी वर्कर्स के फायदे से वंचित करने के बावजूद वही कार्य उसे करवाए, जो वह औरों से भी करवा रहा था। इस कारण याचिकाकर्ता उसी दिन से, जिस दिन अन्य सफाईकर्मियों को लाभ दिया गया, स्थायी पद के लाभ पाने योग्य है।
क्या था मामला?
याचिकाकर्ता ने मुंबई इंडस्ट्रियल कोर्ट के उस आदेश के खिलाफ हाईकोर्ट की ओर रुख किया, जिसमें साल 2006 से उसकी स्थायीता की घोषणा और 2006 से 2017 के दौरान स्थायीता से मिलने वाले लाभों के भुगतान वाली उसकी याचिका को खारिज कर दिया था।
याचिकाकर्ता उस हॉस्पिटल में साल 1994 से कार्य कर रहा था। 1999 में उसका मेडिकल टेस्ट हुआ,जिसमें वह एचआईवी निगेटिव पाया गया था। बाद में 2006 में हॉस्पिटल ने अस्पताल के मान्यता प्राप्त यूनियन की शिकायत पर कुछ अस्थायी कर्मियों को स्थायी पद दे दिया, साथ ही शर्त रखी कि अस्पताल के मुख्य स्टाफ चिकित्सा अधिकारी द्वारा उनकी चिकित्सा फिटनेस जांच की जाए।
अस्पताल के मुताबिक, याचिकाकर्ता को स्थायीता वाले श्रेणी में रखा गया,लेकिन मेडिकल टेस्ट में वह एचआईवी पॉजिटिव पाया गया और उसे अनफिट करार दे दिया। उसके बाद उसे स्थायी नहीं किया गया।
अस्पताल ने आगे कहा कि याचिकाकर्ता का 2011 और 2016 में फिर मेडिकल टेस्ट किया गया, जिसमें वह फिर मेडिकल अनफिट पाया गया। मुंबई जिला एड्स कंट्रोल सोसाइटी के द्वारा मामले में दखल देने के बाद उसे 2017 के जनवरी से स्थायीता का लाभ दिया गया।
कोर्ट ने क्या दिया फैसला?
कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता को साल 2006 से स्थायीता का लाभ दिया जाए। ऐसी स्थायी नियुक्ति प्रदान करने से बकाया राशि के संबंध में विलंब और लापरवाही का सिद्धांत लागू होगा।
जस्टिस मार्ने ने कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि उसे साल 2006 में गलत तरीके से स्थायी पद नहीं दिया गया। इसलिए, उसे स्थायी नियुक्ति का लाभ न मिलने के तुरंत बाद उक्त शिकायत दर्ज करनी चाहिए थी।
‘अस्पताल पर वित्तीय बोझ नहीं’
कोर्ट ने कहा,”अस्पताल पर 12 साल की अनुचित रूप से लंबी अवधि के लिए वेतन के अंतर का भुगतान करने का वित्तीय बोझ नहीं डाला जा सकता।”
कोर्ट ने फैसला सुनाया,“महाराष्ट्र ट्रेड यूनियन मान्यता एवं अनुचित श्रम प्रथा निवारण अधिनियम (एमआरटीयू एवं पल्प) अधिनियम, 1971 के अंतर्गत अनुचित श्रम प्रथाओं की शिकायतों के संबंध में, निर्धारित समय सीमा केवल 90 दिन है। अतः, याचिकाकर्ता अपनी शिकायत दर्ज करने से 90 दिन पहले तक के वास्तविक बकाया का हकदार होगा।”
आदेश में कहा गया कि याचिका को आंशिक रूप से स्वीकार किया जाना चाहिए और अस्पताल को निर्देश दिया जाना चाहिए कि वह याचिकाकर्ता को समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर की तारीख यानी 1 दिसंबर 2006 से स्थायी होने का लाभ दे।
कोर्ट ने इंडस्ट्रियल कोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए कहा कि याचिकाकर्ता को 1 दिसंबर 2006 से अस्पताल का स्थायी कर्मचारी घोषित किया जाए।
