डोरसा यावरिवाफा बैडमिंटन खिलाड़ी हैं। उन्हें इंटरनेशनल ओलंपिक कमेटी की रिफ्यूजी एथलीट स्कॉलरशिप मिली है। वह यह स्कॉलरशिप पाने वाली दूसरी बैडमिंटन खिलाड़ी हैं। इस स्कॉलरशिप के जरिए उनका ओलंपिक गेम्स पेरिस 2024 में खेलने का सपना सच हो सकता है। डोरसा यावरिवाफा भले ही अपने सपने के सच होने की राह के काफी करीब हों, लेकिन उनका यहां तक पहुंचने का सफर बहुत परेशानी भरा रहा है।
9 साल की उम्र में बास्केटबॉल छोड़ थामा था बैडमिंटन का रैकेट
डोरसा यावरिवाफा जब 9 साल की थीं तब पिता के इस खेल के प्रति प्रेम से प्रभावित हो उन्होंने बास्केटबॉल से बैडमिंटन का रुख किया था, लेकिन बैडमिंटन खेलने के लिए उनको सबसे बड़ा बलिदान अपने परिवार खासकर पिता से दूर रहकर देना पड़ा है। हालांकि, यह बैडमिंटन ही है जो उनके शरणार्थी जीवन के सभी कष्टों के दौरान हमेशा साथ रहा है।
लगातार जीतने के बावजूद ईरान की टीम में नहीं चुनी गईं थीं डोरसा
ईरान में जन्मीं इस खिलाड़ी को याद है कि उन्होंने हर आयु-वर्ग टूर्नामेंट में जीत हासिल की थी, लेकिन उन्हें अपने देश का प्रतिनिधित्व करने के लिए नहीं चुना गया था। उनकी मां की धार्मिक पसंद के कारण उनके साथ भेदभाव किया जाता था। डोरसा को याद है कि जब वह करीब 13 वर्ष की थी, तब उन्होंने टीवी पर ओलंपिक देखा था और अपनी मां से पूछा था, ‘क्या आपको लगता है कि मैं कभी वहां पहुंच पाऊंगी?’
मां के धर्म बदलने के कारण डोरसा के साथ हुआ भेदभाव
तब उनकी मां का जवाब था कि यदि वह कड़ी मेहनत करें तो निश्चित रूप से यह संभव है। यह तब तक की बात है जब वह ईरान में ही थीं। डोरसा बताती हैं, ‘ईरान में निष्पक्षता नहीं दिखाई गई। मैं राष्ट्रीय टूर्नामेंट जीत रही थी, लेकिन उन्हें मेरी मां के धर्म से समस्या थी इसलिए हमें देश छोड़ना पड़ा। मेरी मां जन्म से मुस्लिम थीं, लेकिन ईसाई धर्म में विश्वास करती थीं। मेरी मां ने ईसाई धर्म अपना लिया। उनके धर्म बदलने से ही समस्या पैदा हो गई।’
सबसे पहले ईरान से भागकर जर्मनी पहुंचीं थीं डोरसा
डोरसा जब 15 साल की थीं तब उन्हें ईरान छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। शुरुआत में उन्हें और उनके परिवार ने जर्मनी में शरण ली। वहां एक स्थानीय कोच की निगरानी में उन्होंने खेलना शुरू किया। कई प्रतियोगिताएं भी जीतीं। हालांकि, उन्हें ज्यादा समय तक जर्मनी में रहने की मंजूरी नहीं मिली। इसके बाद उनके परिवार ने जान जोखिम में डालकर यूनाइटेड किंगडम का रुख किया।
जान जोखिम में डाल फिर बर्मिंघम को बनाया नया ठिकाना
आखिरकार वह बर्मिंघम पहुंची। वहां उन्होंने अपना सच करने के लिए एक बैडमिंटन क्लब ढूंढ़ा तो, लेकिन कोविड-19 महामारी के कारण उनके प्रशिक्षण पर असर पड़ा। यही वजह रही कि उन्हें छोटे से घर में प्रैक्टिस करने के लिए मजबूर होना पड़ा। डोरसा कहती हैं, ‘इससे मुझे थोड़ा दुख होता है। अपने देश के लिए न खेलना कठिन है। कौन है जो अपने देश के झंडे तले खेलना और उसको गौरवान्वित नहीं करना चाहता?’

ईरान से नहीं खेल पाने का हमेशा रहेगा मलाल
डोरसा अब लंदन में सिंगल्स और डबल्स दोनों खेलती हैं। डोरसा श्री प्रदीप्ता अनंत के साथ जोड़ी बना रही हैं। बर्मिंघम से लंदन जाने के बाद उनकी सिंगल्स राष्ट्रीय रैंकिंग गिर गई, क्योंकि वह पहले की तरह प्रशिक्षण नहीं ले पाती थीं। डबल्स में वह यूनाइटेड किंग्डम में 41वें स्थान पर हैं। डोरसा का अंतिम लक्ष्य पेशेवर रूप से बैडमिंटन खेलना और शायद यूके का प्रतिनिधित्व करना। हालांकि, वह दोहराती हैं, झंडे के नीचे कौन नहीं खेलना चाहता?
ओलंपिक सपना सच करने के लिए डोरसा ने 5 साल से पिता को नहीं देखा
हालांकि, शरणार्थी दर्जा मांगने का मतलब है कि डोरसा पिता को नहीं देख सकतीं जो कुछ साल पहले ईरान लौट गए हैं। वह कहती हैं, ‘मुझे पिताजी को आमने-सामने देखे हुए 5 साल हो गए हैं। उन्हें मेरे बैडमिंटन खेलने पर गर्व है। यही बात मुझे आगे बढ़ाती है।’ 19 साल की डोरसा बताती हैं, ‘अपने पहले टूर्नामेंट में मुझे पहला स्थान मिला। मुझे अच्छे नतीजे मिलते रहे और मैं बेहतर से बेहतर होती गई। मैं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलना चाहती थी।’
क्या है IOC की शरणार्थी एथलीट स्कॉलरशिप
शरणार्थी एथलीट स्कॉलरशिप को अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति (IOC) द्वारा अपने ओलंपिक एकजुटता कार्यक्रम के जरिए वित्त पोषित किया जाता है और पेरिस 2024 ओलंपिक खेलों की तैयारी में एथलीट्स को प्रशिक्षण और प्रतियोगिता के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की जाती है, ताकि आईओसी रिफ्यूजी ओलंपिक टीम में वे चुने जा सकें।