अब क्रिकेट विश्व कप तक कोई नहीं बोलेगा। कोई यह सवाल नहीं उठाएगा कि महेंद्र सिंह धोनी को टीम इंडिया में होना चाहिए या नहीं। अति हो भी बहुत गई थी। धोनी रन बनाने के लिए संघर्ष करते दिखे तो उन्हें टीम से बाहर करने की मांग उठने लगती थी, संन्यास की सलाह दी जाती थी, ज्यादा गेंदें खेलकर कम रन बनाए तो उनकी धीमी बल्लेबाजी को लेकर कोसा जाता था। सिर्फ इसलिए कि आलोचकों को वनडे में ताबड़तोड़ बल्लेबाजी का नजारा चाहिए, चौके-छक्कों की बरसात चाहिए। पर इस सबके बीच आलोचक यह भूल जाते हैं कि बल्लेबाजी कैसी पिच पर करनी पड़ रही है, परिस्थितियां कैसी हैं और विपक्षी गेंदबाजी का स्तर कैसा है? सवाल धोनी पर उठ रहे थे और जवाब भी उन्हीं को देना था। जवाब उन्होंने जुबान से नहीं, बेहतरीन बल्लेबाजी से दिया। उस अंदाज में तो नहीं जिसके लिए वे जाने जाते हैं – विस्फोटक बल्लेबाजी। पर तीन में से खेली दो पारियों से उन्होंने सुनिश्चित किया कि जीत का सेहरा भारत को बंधे। तीनों एकदिवसीय में अर्धशतक मारने पर उन्हें लंबे इंतजार के बाद वह सम्मान मिला जिसकी शायद उन्होंने इस उम्र में कल्पना नहीं की थी। आठ साल बाद किसी एकदिवसीय शृंखला में वे ‘मैन आफ द सीरिज’ अवार्ड से नवाजे गए। 37 की उम्र में उनके जज्बे को सलाम किया जाना चाहिए। इस प्रदर्शन से आस्ट्रेलियाई दिग्गज इयन चैपल और कोच जस्टिन लेंगर भी उनकी तारीफ किए बिना नहीं रह सके।
आम तौर पर आस्ट्रेलियाई किसी की तारीफ आसानी से नहीं कर सकते। पर धोनी की इन पारियों, विकेट के बीच उनकी दौड़, 50 ओवरों तक विकेटकीपिंग के बाद टीम को जीत दिलाने की काबिलियत से जहां लेंगर ने उन्हें खेल का सुपरस्टार करार दिया, वहीं चैपल ने उन्हें एकदिवसीय क्रिकेट का सर्वश्रेष्ठ फिनिशर करार दिया। आस्ट्रेलियाई कप्तान आरोन फिंच ने भी धोनी की महानता को सलाम किया। समय के साथ-साथ एकदिवसीय में जीत दर्ज करने का अंदाज भी बदला है। अब मैच सिर्फ विस्फोटक बल्लेबाजी से नहीं जीते जाते। खिलाड़ियों का रवैया बदला है। खेल की परिस्थिति को देखकर खिलाड़ी रन बटोरने की कला ईजाद कर रहे हैं। विकेट बचाकर रखना भी प्राथमिकता बनता जा रहा है। आखिरी दस ओवरों में तकरीबन सौ रन बन रहे हैं। धोनी ने भी अपने खेल को बदला है, अपने रोल को फिनिशर कम, पारी के संवारने वाला ज्यादा बना लिया है।
लेकिन जब मैच को फिनिश करने का धोनी बीड़ा उठाते हैं तो उनके चेहरे पर किसी तरह का तनाव दिखाई नहीं देता। ठंडे रहकर वे पारी को अंजाम देते हैं, कोई जल्दबाजी नहीं दिखाते। उनके धीमेपन से कई बार क्रिकेट विशेषज्ञों और क्रिकेटप्रेमियों को खीझ भी होती है। लेकिन धोनी का अपना गणित है और वे पारी को अंत तक खींचते हैं, गेंदबाजों के नर्वस होने का इंतजार करते हैं और मौका मिलते ही बड़े स्ट्रोक खेलकर वे मैच को अपनी टीम के पक्ष में मोड़ लेते हैं।
यहां यह भी सवाल उठता है कि हम धोनी से ही मैच जिताने की इतनी अपेक्षा क्यों रखते हैं। टीम में दूसरे भी बल्लेबाज हैं। अगर धोनी एक सिरे पर टिके रहते हैं तो तेजी से रन जुटाने की जिम्मेदारी दूसरे बल्लेबाजों को उठाना चाहिए। हमें मैच विजेता एक खिलाड़ी नहीं, ज्यादा चाहिए। धोनी करिअर के अंतिम पड़ाव में हैं। इसलिए दूसरे मैच फिनिशर की तलाश होनी चाहिए। यही धोनी कर भी रहे हैं। वे साथी बल्लेबाजों का मार्गदर्शन करते हैं और खेल को कैसे आगे ले जाना है, यह सीख भी दे रहे हैं। मेलबर्न में तीसरे वनडे में उन्होंने केदार जाधव का आत्मविश्वास जगाया।
इससे पहले एडिलेड में दूसरे वनडे में उन्होंने सुनिश्चित किया कि दिनेश कार्तिक खुलकर खेलें और जीत के नायक बनें। एडिलेड में धोनी की पारी को तो कप्तान विराट कोहली ने ह्यमाही क्लासिकह्ण की संज्ञा दी थी। सिडनी में पहले एकदिवसीय में जब वे क्रीज पर उतरे, उस समय भारतीय टीम चार रन पर तीन विकेट गंवाकर संकट में थी। धोनी ने रोहित शर्मा के साथ मिलकर 137 रन की शतकीय साझेदारी से भारत को चुनौती में रखने के साथ सुनिश्चित किया कि हार भी हो तो शर्मनाक तरीके से नहीं। अब जिसको जो कहना है, कहता रहे। धोनी अपने अंदाज में खेलते हैं, उनको पता है कि कब क्या करना है।
धोनी ने भारतीय क्रिकेट को बहुत कुछ दिया है। उनके जैसे समर्पित खिलाड़ी बहुत कम मिलते हैं। इसलिए धोनी को अपने खेल का लुत्फ उठाने दीजिए। समय पर वे खेल से अपने आप विदा ले लेंगे। टैस्ट और टी-20 में वे ऐसा कर भी चुके हैं। किसी को नसीहत देने की जरूरत नहीं। जिसने मैच फिनिशर के तौर पर 48 में से 46 मैचों को जिताया, जिसका औसत सौ से ऊपर हो, जो निर्विवाद रूप से नंबर वन फिनिशर हो, उसे कोसिए नहीं, सम्मान की निगाह से देखिए। शायद एक और विश्व कप उनकी आखिरी ख्वाहिश हो।