कांग्रेस और समाजवादी पार्टी में सीट बंटवारे पर समझौता हो गया है। उत्तर प्रदेश की कुल 80 लोकसभा सीटों में से 17 पर कांग्रेस और शेष पर अखिलेश यादव की सपा लड़ेगी। हालांकि सपा महीनों से दावा कर रही थी कि कांग्रेस, उत्तर प्रदेश में मजबूत नहीं है, इसलिए उसे उसी हिसाब से सीट मांगनी चाहिए।

30 जनवरी को सपा ने अपनी तरफ से घोषणा कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया था कि वह कांग्रेस को राज्य की कुल 80 में से सिर्फ 11 लोकसभा सीटें देगी। हालांकि अब कांग्रेस रायबरेली, अमेठी, कानपुर, फतेहपुर सीकरी, बांसगांव, सहारनपुर, प्रयागराज, महराजगंज, वाराणसी, अमरोहा, झांसी, बुलन्दशहर, गाजियाबाद, मथुरा, सीतापुर, बाराबंकी और देवरिया सीटों पर चुनाव लड़ेगी।

सपा ने सख्त रुख क्यों छोड़ा?

सपा नेताओं का कहना है कि कांग्रेस को बड़ी हिस्सेदारी देने का एक मुख्य कारण मुस्लिम वोटों के बंटने का डर था। 2022 के विधानसभा चुनावों में सपा को मुस्लिम वोटों पर बहुत अधिक भरोसा था, और ऐसा लगता है कि उसने इसे काफी हद तक हासिल भी कर लिया है क्योंकि पार्टी उन सीटों पर विजयी हुई है जहां मुसलमानों अधिक संख्या में हैं। चुनाव में सपा के 30 मुस्लिम उम्मीदवार जीते थे।

चूंकि कांग्रेस भी मुस्लिम वोटों पर नज़र रख रही है और उन तक पहुंचने के लिए कार्यक्रम आयोजित कर रही है, मौलवियों से मिल रही है, इसलिए सपा को डर है कि अगर समुदाय के वोट विभाजित हो गए तो उसे बड़ा नुकसान होगा।

कई लोगों का मानना है कि 2022 में सपा को मिले 32.06% वोटों का एक बड़ा हिस्सा मुस्लिम समुदाय से आया था, जो राज्य की आबादी का लगभग 20% है। एक वरिष्ठ सपा नेता ने कहा, “यह देखते हुए कि यह लोकसभा चुनाव है, हम जानते थे कि अगर मुस्लिम वोटों का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस की ओर चला गया तो हमें सीटें गंवानी पड़ सकती हैं।”

यूपी में कांग्रेस का प्रदर्शन कैसा रहा?

ऐसा लगता है कि कांग्रेस ने कड़ी सौदेबाजी की है, तब जाकर उसे 17 सीटें मिली है। कई एसपी नेताओं को लगता है कि कांग्रेस के लिए 17 सीटें “बहुत अधिक” है। 2022 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस 2.33% वोट शेयर के साथ 403 विधानसभा सीटों में से केवल दो पर जीत हासिल की थी। इसके उलट सपा को 111 सीटों पर जीत मिली थी और वह मुख्य विपक्ष के रूप में उभरी थी।

2019 के लोकसभा चुनावों में भी कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक था क्योंकि उसे जीत ही एक सीट (रायबरेली) पर मिली थी। पिछले लोकसभा चुनाव में राज्य में पार्टी का वोट शेयर 6.36% था। यहां तक कि खुद राहुल गांधी कांग्रेस के गढ़ अमेठी में भाजपा की स्मृति ईरानी से 55,000 वोटों से हार गए थे।

2014 के लोकसभा चुनावों में भी कांग्रेस ने केवल दो सीटें जीती थीं – अमेठी (राहुल गांधी) और रायबरेली (सोनिया गांधी) और उसका वोट शेयर 7.53% था। ऐसा लगता है कि सपा के साथ बातचीत करते समय कांग्रेस ने 2009 के लोकसभा चुनाव परिणामों को एक बेंचमार्क के रूप में इस्तेमाल किया है, जब उसने राज्य में 21 सीटें जीती थीं।

RLD के जाने से सपा-कांग्रेस समझौते पर क्या असर पड़ा?

ऐसा लगता है कि जयंत चौधरी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय लोक दल (RLD) के भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए में जाने से भी कांग्रेस को सौदेबाजी के अवसर मिले हैं। पहले सपा ने आरएलडी को साथ लाने की आवश्यकता पर जोर देते हुए कांग्रेस को कम सीटों की पेशकश की थी। सूत्रों ने कहा कि RLD के बाहर निकलने के साथ ही कांग्रेस ने आक्रामक तरीके से अधिक सीटों पर जोर दिया।

17 सीटों में से पांच – बुलंदशहर, गाजियाबाद, मथुरा, सहारनपुर और अमरोहा – जिन पर कांग्रेस चुनाव लड़ेगी, वे पश्चिम यूपी में हैं, जिसे आरएलडी का गढ़ माना जाता है। अगर आरएलडी इंडिया ब्लॉक के साथ बनी रहती तो कांग्रेस को ये सीटें मिलती, इसकी संभावना बहुत कम लगती है।

क्या सहयोगियों की कमी से कदम आगे बढ़ाने को मजबूर हुई सपा?

2022 के विधानसभा चुनावों में सपा ने जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हुए केशव देव मौर्य के नेतृत्व वाले महान दल, ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और आरएलडी जैसे कई छोटे दलों के साथ गठबंधन किया था।

हालांकि, विधानसभा चुनाव में सपा की हार के बाद ये सहयोगी दल दूर हो गए। सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी और आरएलडी जहां एनडीए में शामिल हो गए हैं, वहीं महान दल ने भी एसपी से नाता तोड़ लिया है। सूत्रों ने कहा, सहयोगियों की कमी ने भी सपा को कांग्रेस को अधिक सीटें देने के लिए प्रेरित किया होगा।