‘जन गण मन’ को पहली बार 27 दिसंबर, 1911 को कोलकाता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में गाया गया था। इसकी रचना राष्ट्रकवि रवींद्रनाथ टैगोर ने बंगाली में की थी। पहली बार गाए जाने के बाद से ही यह कांग्रेस के आयोजनों का हिस्सा बन गया। 24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा ने ‘जन गण मन’ को भारत के राष्ट्रगान के रूप में अपना लिया। हालांकि यह फैसला आसान नहीं था क्योंकि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रचलित वेंदे मातरम् के पैरोकार भी कई थे।
वंदे मातरम के पैरोकार
21 मई 1948 को नेहरू ने एक कैबिनेट नोट लिखा, ”हमने भारत का राष्ट्र ध्वज और आधिकारिक राजचिन्ह तय कर लिया है। हमें जल्द ही अपना राष्ट्रगान भी तय करना होगा।… इस समय हमारे पास ‘जन गण मन’ और वंदे मातरम दो विकल्प है। आजकल सेना के बैंड भारत और विदेश दोनों जगह आधिकारिक अवसरों पर काफी हद तक ‘जन गण मन’ ही बजा रहे हैं।
मैंने विभिन्न प्रांतों के गवर्नर से बातचीत की और उनसे कहा कि वह अपने अपने मुख्यमंत्रियों से सलाह-मशविरा करें। उन सब ने आम राय से ‘जन गण मन’ को समर्थन दिया है। इसमें से एकमात्र अपवाद सेंट्रल प्रोविंस के गवर्नर हैं, जिन्होंने वंदे मातरम को तरजीह दी है।”
सेंट्रल प्रोविंस के गवर्नर के अलावा पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री विपिन चंद्र रॉय और भाजपा के संस्थापक रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने भी वेंदे मातरम् को राष्ट्रगान बनाने की मांग की थी। दरअसल आजादी की तारीख नजदीक आने के साथ-साथ वंदे मातरम् को लेकर साम्प्रदायिक बंटवारा बढ़ने लगा था।
निसंदेह बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा रचित वंदे मातरम् शुरुआत में अंग्रेज विरोधी आंदोलन में साझे राष्ट्रवाद का मंत्र था। लेकिन बाद में उसी के नाम पर साम्प्रदायिक अलगाव शुरू हो गया। वंदे-मातरम् पर विभाजन को रोकने के लिए 1937 में गांधी, नेहरू, अबुल कलाम आज़ाद और सुभाष चंद्र बोस को लेकर एक समिति बनाई गई।
बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, समिति के सामने यह आपत्ति दर्ज कराई गई कि यह गीत एक धर्म विशेष के हिसाब से भारतीय राष्ट्रवाद को परिभाषित करता है। ये आपत्ति सही भी थी क्योंकि 1875 में बांग्ला और संस्कृत में लिखे वंदे मातरम् में भारत को दुर्गा का स्वरूप मानते हुए देशवासियों को उस माँ का संतान बताया था। नेहरू के सुझाव मांगने पर रवींद्रनाथ टैगोर ने खुद कहा था कि वंदे मातरम् के पहले दो छंदों को ही सार्वजनिक रूप से गाया जाए।
नेहरू ने ‘जन गण मन’ को क्यों चुना?
विपिन चंद्र रॉय ने नेहरू को खत लिखकर कहा था कि कुछ मुसलमान इसका विरोध करें, तब भी वंदे मातरम् को ही राष्ट्रगान बनाया जाए। नेहरू ने रॉय को जवाब देते हुए कहा, राष्ट्रगान संविधान सभा तय करेगी। कुछ मुसलमानों द्वारा वेंदे मातरम् का विरोध किए जाने का कोई सवाल नहीं है। हममें से ज्यादातर लोग यह महसूस करते हैं कि मौजूदा संदर्भ में वंदे मातरम् राष्ट्रगान के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है।
नेहरू ऐसा करने के पीछे की वजह भी बताते हैं, ”वंदे मातरम् आजादी की लड़ाई से जुड़ा गीत है और रहेगा। इसे इसी के अनुरूप सम्मान दिया जाएगा। लेकिन राष्ट्रगान संघर्ष और रिश्ते को दिखाने वाली उन चीजों से अलग है, जिनका वंदे मातरम् प्रतिनिधित्व करता है। राष्ट्रगान विजय और उससे मिली संतुष्टि का प्रतीक होना चाहिए। न कि अतीत के संघर्ष का।”
वरिष्ठ पत्रकार और लेखक पीयूष बबेले की किताब ‘नेहरू मिथक और सत्य’ में नेहरू के हवाले से बताया गया कि कैसे वंदेमातरम् आर्केस्ट्रा पर बजाए जाने के माकूल नहीं है। नेहरू कहते हैं, ”हमने बहुत से नामचीन संगीतकारों, जिनमें विदेश के सबसे बड़े आर्केस्ट्रा संचालक भी शामिल हैं, से इस बारे में सलाह-मशविरा किया। वंदे मातरम् आर्केस्ट्रा और सेना के बजाए जाने के पैमाने पर खड़ा नहीं उतरा। ‘जन गण मन’ में इस बारे में एक आदर्श जोश है। अधिकतर लोगों ने इसे मंजूरी दी।”