उत्तर प्रदेश के सरधना स्थित बेसिलिका के निर्माण को 200 वर्ष पूरा हो चुका है। 1822 में बेगम समरू द्वारा निर्मित इस बेसिलिका को Basilica of Our Lady of Graces कहा जाता है। बेगम समरू को भारत की एकमात्र कैथोलिक रानी के रूप में जाना जाता है। एक तवायफ के रूप में अपनी जिंदगी शुरु करने वाली बेगम समरू भारत की सबसे अमीर और सबसे शक्तिशाली महिलाओं में से एक बनकर मरी थीं। 48 साल तक सरधना सल्तनत पर शासन करने वाली बेगम समरू की कहानी कई वजहों से दिलचस्प है, आइए जानते हैं:

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कौन थीं बेगम समरू?

बेगम समरू (1750-1836) एक ऐसी शख्सियत थीं, जिन्होंने कई तरह की पहचान को चुनौती दी। वह मुस्लिम थी लेकिन बाद में धर्म परिवर्तित कर कैथोलिक हो गईं। शुरुआत में वह कोठे पर नाचने वाली एक ‘नाजुक’ लड़की थीं, कलांतर में उन्होंने एक महान योद्धा और अभिजात के रूप में पहचान बनाई। उनके समकालीनों का मानना था कि वह पुरुष की तरह कपड़े और गहरे रंग की पगड़ी पहनती थी।    

बेगम समरू के जन्म को लेकर दो अलग-अलग दावे हैं। पहला दावा है कि उनका जन्म मेरठ में एक गरीब परिवार में हुआ था। दूसरा दावा है कि वह कश्मीरी वंश की थी। जन्म के बाद उनका नाम फरज़ाना रखा गया था। उन्होंने अपना शुरुआती जीवन दिल्ली में एक तवायफ (नृत्य करने वाली लड़की) के रूप में बिताया।

वह 18वीं शताब्दी के उत्तर भारत की एक चतुर नेता थीं। हालांकि जिस दौर में फरज़ाना बेगम समरू बनीं, उस दौर में तवायफों को स्वतंत्र विचारों वाली महिला माना जाता था। तब तवायफों की गिनती महिलाओं के प्रभुशाली वर्ग में होती थी। कलाकारों की श्रेणी में इनका शीर्ष स्थान होता था। उन्हें दौलत और रुतबा दोनों हासिल था। यह पेशा किसी भी तरह से देह व्यापार से नहीं जुड़ा था।

बीबीसी की एक रिपोर्ट में इतिहास के जानकार सलीम किदवई के हवाले से बताया गया है कि मुगल शासन के दौरान हिंदू और मुस्लिम दोनों दरबारों में कई अवसरों पर तवाय राजनैतिक मामलों में सक्रिय दिखती थीं।    

जब भाड़े के सैनिक से हुआ प्रेम?

साल 1767 की बात है। दिल्ली के चावड़ी बाजार में फरज़ाना की मुलाकात एक सैनिक वॉल्टर रेनहार्ड सौम्ब्रे से हुई। बताया जाता है कि उनके नाम के साथ सौम्ब्रे उनके गंभीर स्वभाव के कारण जुड़ा था। यही सौम्ब्रे बाद में समरू हो गया। अनिश्चित मूल और उससे भी अधिक अनिश्चित निष्ठाओं के इस सैनिक को ऑस्ट्रिया का बताया जाता है। वॉल्टर भाड़े के सैनिक थे। 1750 में भारत पहुंचने के बाद वह ब्रिटिश, फ्रांसीसी और जाटों की तरफ से लड़ चुका था।

कुछ दस्तावेजों में  रेनहार्ड को ‘बुचर ऑफ़ पटना’ यानी पटना का कसाई कहा जाता है। यह उपाधि अंग्रेजों का कत्ल करने की वजह से मिला था। यही वजह रही कि रेनहार्ड को अधिकतर युद्ध अंग्रेजों के खिलाफ लड़ना पड़ा। जिस रोज रेनहार्ड और फरजाना की मुलाकात हुई, उस रोज वह अंग्रेजों से छिपते-छिपाते चावड़ी बाज़ार के तवायफों के मोहल्ले में आराम और मनोरंजन के लिए पहुंचा था।

यहां फरज़ाना का नृत्य देखने के बाद रेनहार्ड और फरज़ाना कभी अलग नहीं हुए। वॉल्टर रेनहार्ड लड़ाकों की अपनी टोली के साथ जहां जाता, फरज़ाना साथ जातीं। जिसकी तरफ से जंग लड़ने का काम मिलता, वह भी साथ लड़तीं। लम्बे समय तक मुगलों की तरफ से लड़ने के कारण मुगल राजा शाह आलम द्वितीय ने वॉल्टर रेनहार्ड को उत्तर प्रदेश के सरधना का जागीरदार बना दिया। हालांकि इसके कुछ समय बाद ही 1778 में उनकी मौत हो गई।

कैसे मिली सरधना की गद्दी?

वॉल्टर रेनहार्ड का मृत्यु के बाद फरज़ाना सरधना की उत्तराधिकारी चुनी गईं। इसके लिए बकायदा वॉल्टर के 82 यूरोपियन अफसरों और 4000 सैनिकों ने शाह आलम को पेटिशन दिया था। सैनिक चाहते थे कि उनका नेतृत्व बेगम समरू करें। बताया जाता है कि फरज़ाना पति की याद में धर्म बदलकर कैथोलिक ईसाई हो गईं। उन्होंने अपना नाम भी बदलकर जोआना (लोकल भाषा में योहाना) कर लिया।