क्या हो अगर आपको बताया जाए कि भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ‘इंदिरा’ को उपहार स्वरूप जापान के बच्चों को दे दिया था, जहां उन्हें चिड़ियाघर में रखा गया था। ये बात बिलकुल सही है। नेहरू ने 1949 में ऐसा किया था। ये नेहरू की कूटनीति का हिस्सा था। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद भारत-जापान की मित्रता का यह एक अहम किस्सा है।
सदियों से भारत-जापान की कहानी में अनेक तरह के पात्र मिलते हैं। इन पात्रों में घुमंतू भिक्षु, भगोड़े, रसोइये, कवि, फिल्मी सितारे और हाथी भी शामिल है। साल 1949 में प्रधानमंत्री नेहरू ने जापान के बच्चों के लिए उपहार के रूप में अपनी बेटी इंदिरा के नाम पर एक हथिनी को टोक्यो के यूनो चिड़ियाघर में भेजा था। वह हथिनी चिड़ियाघर का मुख्य आकर्षण और जापान के प्रति भारत के मित्रता का एक स्थायी प्रतीक बन गई।
इस किस्से के बारे में भारतीय पत्रकार और लेखक पल्लवी अय्यर ने अपनी किताब ‘Orienting: An Indian In Japan’ में लिखा है। अय्यर वर्तमान में स्पेन में रहती हैं। वह द हिंदू (अंग्रेजी अखबार) की चाइना ब्यूरो चीफ रह चुकी हैं।
जब जापान ने अपने जानवरों को खुद मार दिया
‘इंदिरा’ के जापान पहुंचने की कहानी द्वितीय विश्व युद्ध की तबाही से शुरू होती है। साल 1924 में जापान, भारत के चिड़ियाघर से हाथी का एक जोड़ा (नर-मादा) ले गया था, जिनका नाम टोनकी और जॉन था। लगभग एक दशक बाद थाईलैंड से एक तीसरा हाथी हनाको भी भारतीय हाथियों के साथ रहने के लिए पहुंच गया। इसके कुछ वर्षों बाद ही द्वितीय विश्व युद्ध शुरू हो गया।
युद्ध न सिर्फ इंसानों के लिए बल्कि जानवरों के लिए भी विनाशकारी साबित हुआ। जापान को डर था कि हवाई हमलों के दौरान चिड़ियाघर के खतरनाक जानवर बाहर आ जाएंगे। इस चिंता से निपटने के लिए जापान ने चिड़ियाघर के ‘सबसे खतरनाक’ जानवरों को मारने का निर्णय लिया।
युद्ध के दौरान जानवरों को कोई खाना देने वाला नहीं था, ऐसे में जो जानवर बच गए थे, वह भूख से मरने लगे। 1943 में तीनों हाथियों की भी भूख से मौत हो गई। तीनों में सबसे आखिर तक टोनकी हथिनी जिंदा रही। इस बात के वृत्तांत हैं कि कैसे जब भी कोई इंसान टोनकी के बाड़े से गुजरता, तो वह इस उम्मीद में करतब दिखाने लगती थी कि कोई खाना दे देगा। आखिरकार टोनकी भी भूख से जिंदगी की जंग हार गई। जापान में इस नरसंहार की वीभत्सता को अक्सर छुपाया जाता है।
सातवीं कक्षा के बच्चों ने जापान की संसद को दी याचिका
युद्ध से हुई तबाही के बाद जब जापान खुद को संवारने में जुटा था, उन्हीं दिनों जापानी संसद के ऊपरी सदन को सातवीं कक्षा के दो छात्रों की याचिका मिली। छात्र इस बात से दुखी थे कि वे अब चिड़ियाघर में हाथी नहीं देख पा रहे हैं। उन्होंने पूछा कि क्या नया हाथी खरीदा जा सकता है? उनकी याचिका एक सार्वजनिक अभियान में बदल गई।
प्रधानमंत्री नेहरू को जापान के एक हजार से ज्यादा बच्चों ने लिखा पत्र
टोक्यो सरकार ने बच्चों से एक हजार से अधिक पत्र एकत्र किए। ये सभी पत्र भारत के प्रधानमंत्री को संबोधित थे, जिसमें उनसे एक हाथी भेजने का अनुरोध किया गया था। नेहरू ने सहमति दे दी और इस तरह ‘इंदिरा’ की मैसूर के जंगलों से जापान की यात्रा शुरू हुई। 25 सितंबर 1949 को ‘इंदिरा’ को यूनो चिड़ियाघर पहुंचाया गया। हाथी के आगमन से टोक्यो में बहुत उत्साह फैल गया। चिड़ियाघर खचाखच भरा गया। हजारों लोग बस नए हाथी की एक झलक पा लेना चाहते थे।
जवाहरलाल नेहरू ने ‘इंदिरा’ के साथ जापान के बच्चों को संबोधित करते हुए एक पत्र भी भेजा था। उन्होंने लिखा था, “इंदिरा एक अच्छी हथिनी है, बहुत अच्छे व्यवहार वाली है। मुझे उम्मीद है कि जब भारत के बच्चे और जापान के बच्चे बड़े होंगे, तो वे न केवल अपने महान देशों की सेवा करेंगे, बल्कि पूरे एशिया और दुनिया भर में शांति और सहयोग का भी लक्ष्य रखेंगे। आपको इस हथिनी, जिसका नाम इंदिरा है, उसे भारत के बच्चों के स्नेह और सद्भावना के दूत के रूप में देखना चाहिए। हाथी एक नेक जानवर है। यह बुद्धिमान और धैर्यवान, मजबूत और फिर भी सौम्य है। मुझे उम्मीद है कि हम सभी में भी ये गुण विकसित होंगे।”
‘इंदिरा’ को सिर्फ कन्नड़ भाषा समझ आती थी!
‘इंदिरा’ जब टोक्यो पहुंची थीं, तब यूनो चिड़ियाघर के प्रमुख तदामिची कोगा हुआ करते थे। उन्होंने बाद में कहा था कि ‘इंदिरा’ को पाना उनके जीवन के सबसे खुशी के क्षणों में से एक था। ‘इंदिरा’ मैसूर में पैदा हुई थीं। उनका पालन पोषण भी वहीं हुआ था। उनके महावत कन्नड़ बोलते थे। यही वजह थी कि ‘इंदिरा’ सिर्फ कन्नड़ में दिए आदेशों का ही पालन कर सकती थीं।
इस परेशानी को दूर करने के लिए ‘इंदिरा’ के जापानी संचालकों सुगया और शिबुया को भारतीय महावतों से सीखना पड़ा कि हथिनी से कैसे संवाद किया जाए। इस काम में दो महीने लग गए।
जब ‘इंदिरा’ से मिली इंदिरा गांधी
1957 में इंदिरा गांधी अपने पिता जवाहरलाल नेहरू के साथ जापान गई थीं, तब उन्होंने अपनी हमनाम हथिनी से ‘व्यक्तिगत’ मुलाकात की थी। उन दिनों इस घटना ने खूब सुर्खियां बटोरी थी। 1970 के दशक तक ‘इंदिरा’ का स्टारडम कुछ हद तक कम हो गया था, खासकर 1972 में चीन से कुछ विशाल पांडा के चिड़ियाघर में आने के बाद।
फिर भी इंदिरा स्नेह की पात्र बनी रहीं और जब 1983 में उनकी मृत्यु हो गई, तो टोक्यो के गवर्नर शुनिची सुजुकी ने उन्हें श्रद्धांजलि दी। उन्होंने कहा, “इंदिरा ने जापानी बच्चों को एक बड़ा सपना दिया और तीस साल से अधिक समय तक जापान-भारत की दोस्ती में अच्छी भूमिका निभाई।”