मैं बिहार हूं। मैं इस राजनीतिक अखाड़े का सदियों पुराना पहलवान हूं। मैंने यहां कई दांव-पेच देखे हैं। जितनी तेजी से गिरगिट रंग नहीं बदलती, उससे भी ज्यादा तेज मैंने सियासी रंग बदलते देखे हैं। कल के दोस्त आज दुश्मन, और आज के दुश्मन कल के दोस्त—यही मेरी खूबसूरती है, यही मेरी कमजोरी और यही मेरी राजनीति का चरित्र। मैं बिहार हूं… और आज मैं लालू-नीतीश की दोस्ती और दूरी की कहानी सुना रहा हूं।

1994 में नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव से अलग होकर समता पार्टी बनाई। लेकिन नीतीश और लालू के रिश्तों में कड़वाहट दो साल पहले ही शुरू हो चुकी थी। वरिष्ठ पत्रकार श्रीकांत की किताबें “बिहार: चिट्ठियों की राजनीति” और “बिहार: द पॉलिटिक्स ऑफ़ लेटर” बताती हैं कि 1990 से ही नीतीश लालू से खफा चल रहे थे।

रिश्ते इतने खराब हो चुके थे कि नीतीश एक के बाद एक कई चिट्ठियां लालू को लिख रहे थे-चिट्ठियां जिनमें दर्द था, गुस्सा था, जनता से किए वादों के टूटने की पीड़ा थी। नीतीश को एहसास हो चुका था कि बहुत जल्द दोनों की राहें अलग होने वाली हैं।

संकर्षण ठाकुर की किताब “बिहार बंधु” में इन चिट्ठियों का विस्तार से जिक्र है। एक चिट्ठी में नीतीश ने लालू को लिखा था-

नीतीश ने आरोप लगाया कि सरकार में जातिगत भेदभाव बढ़ रहा है, विशेष जाति के लोगों को फायदा मिल रहा है और कुर्सी के आसपास “सत्ता-लोलुप” लोग मंडरा रहे हैं। नीतीश की सबसे बड़ी शिकायत यह थी कि लालू सरकार के हर सामूहिक फैसले का पूरा श्रेय वे खुद ले रहे थे। नीतीश कुमार साइड लाइन महसूस करने लगे थे, अकेले पड़ चुके थे और जनता के बीच लोकप्रियता सिर्फ लालू की बढ़ रही थी।

उसी नाराजगी का जिक्र नीतीश की चिट्ठी में भी मिलता है। नीतीश लिखते हैं- “निर्णय सामूहिक होते हैं, लेकिन क्रेडिट अकेले आप ले रहे हैं। आडवाणी की गिरफ्तारी हो या धर्मनिरपेक्ष राजनीति—राह हमने मिलकर चुनी थी, लेकिन दिखाया ऐसा गया जैसे सब आपने अकेले किया। यह स्वार्थपूर्ण राजनीति है।”

संकर्षण ठाकुर ने दिल्ली स्थित बिहार भवन की एक घटना का जिक्र किया है, बात 1992 की है। नीतीश, शिवानंद तिवारी, बृषिन पटेल, ललन सिंह सहित कई नेता लालू से मिलने पहुंचे थे। किसानों का कई दिनों से प्रदर्शन चल रहा था, नीतीश चाहते थे कि लालू उसका समाधान करें उनकी बात सुनें। लेकिन बैठक के शुरू होते ही कुछ ऐसा हुआ कि सभी स्तब्ध रह गए।

लालू गुस्से में फट पड़े और ललन सिंह पर चिल्ला दिए। उन्होंने दो टूक कहा- निकल बाहर, बाहर निकल साला। शोर इतना ज्यादा था कि दूर दूसरे रूम में बैठ सरयू राय भागकर आए और देखा कि लालू तिलमिलाए हुए थे। वे अपने सुरक्षाकर्मियों से कह रहे थे- पकड़के फेंक दो, ले जाओ घसीट के। नीतीश समझ चुके थे उनके अलग होने का समय आ गया था, अपने साथियों से भी उन्होंने यही कहा। इसके बाद नीतीश ने सरयू से एक चिट्ठी लिखने को कहा जिसमें स्पष्ट रूप से बताया जाए कि आखिर क्यों वे लालू से अलग होना चाहते हैं। ऐसी चिट्ठी लिखी भी गई, लेकिन उसका आखिरी पन्ना गायब हो गया।

कई सालों बाद पत्रकार श्रीकांत को उस आखिरी पन्ने का रहस्य पता चला। श्रीकांत ने शिवानंद तिवारी और सरयू राय से बात की थी। दोनों ने बताया कि उस आखिरी पन्ने पर नीतीश ने कठोर शब्दों में लिखा था- अब आपके साथ रहना व्यर्थ है। इन परिस्थितियों में मैं आपसे अलग होकर स्वतंत्र राजनीति करना उचित समझता हूं।”

उस चिट्ठी के बाद भी नीतीश को लालू से अलग होने में दो साल गए और 1994 आते-आते रास्ते अलग हो ही गए। यहीं से बिहार की राजनीति दो ध्रुवों में बंट गई-एक तरफ लालू, दूसरी तरफ नीतीश।

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