विक्स वेपोरब का नीला डिब्बा कई भारतीयों के नॉस्टैल्जिया का हिस्सा बना चुका है। विक्स की कहानी को बढ़ते भारतीय मध्यम वर्ग से अलग करना मुश्किल है। आम सर्दी-जुकाम के लिए अक्सर इस्तेमाल होने वाला विक्स एक अमेरिकी कंपनी है। भारत में इसकी कहानी 1960 के दशक से शुरू होती है।
साल 1964 में विक्स को भारतीय बाजार में रिचर्डसन हिंदुस्तान लिमिटेड (आरएचएल) नामक एक सार्वजनिक लिमिटेड कंपनी के जरिए उतारा गया था। मूल कंपनी, रिचर्डसन मेरेल ने 1951 में भारत में एक ऑफिस खोला था।
लेकिन ब्रांड को स्वतंत्र रूप से परिचालन का मौका साल 1964 में मिला, जब 10,000 से अधिक भारतीय शेयरधारकों के साथ एक सार्वजनिक लिमिटेड कंपनी (आरएचएल) की स्थापना हुई। 1960 के दशक में आरएचएल दुनिया भर में विक्स बेचने वाली कई सहायक कंपनियों में से एक थी।
भारत में विक्स का उपयोग तो तेजी से बढ़ रहा था। इंदिरा सरकार के दौरान फ्लू की एक लहर ने विक्स के प्रोडक्ट्स की मांग में उछाल ला दिया था। उस दौरान कंपनी ने पैसा तो खूब कमाया लेकिन अधिक उत्पादन के लिए कंपनी को सरकार की तरफ से कानूनी नोटिस मिल गया।
लाइसेंस परमिट राज और विक्स
दरअसल, आजादी के बाद भारत की अर्थव्यवस्था ‘बंद अर्थव्यवस्था’ था। सरकार तय करती थी कि कोई कंपनी कौन सा प्रोडक्ट कितना बनाएगी। उसे बनाने में कितने लोग काम करेंगे और उत्पाद की कीमत क्या होगी। इसके आलोचक इस व्यवस्था को ‘लाइसेंस परमिट राज’ कहते हैं।
हालांकि 1962 तक भारत में दवा की कीमतों को विनियमित नहीं किया गया था, लेकिन चीनी आक्रमण के मद्देनजर, सरकार को दवाओं की कमी के कारण कीमतों में वृद्धि की आशंका थी। इसके परिणामस्वरूप 1962 में Defence of India Act, 1915 के तहत दवा की कीमतों पर नियंत्रण का पहला उदाहरण सामने आया।
अततः युद्ध तो खत्म हो गया, लेकिन डीपीसीओ बना रहा। 1966 में डीपीसीओ ने दवाओं के निर्माण के लिए सरकार द्वारा कीमतों की पूर्व मंजूरी अनिवार्य कर दी। विक्स डीपीसीओ के अंतर्गत आता था और तेजी से विस्तार कर रहा था। 1966 में ही गुरचरण दास रिचर्डसन हिंदुस्तान बॉम्बे कार्यालय में शामिल हुए। वह बतौर मिडिल मैनेजर नियुक्त हुए थे।
गुरुचरण दास ‘अदर सॉर्ट ऑफ फ्रीडम’ नामक एक किताब लिखी है, जो पेंगुइन इंडिया से प्रकाशित हुई है। इस किताब में उन्होंने भारत में फैले फ्लू और विक्स को मिले नोटिस का जिक्र किया है। दास ने किताब में लाइसेंस राज के खिलाफ भी लिखा है।
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को समाजवादी युग की उपज बताते हुए दास लिखते हैं, “नेहरू एक-दूसरे की देखभाल करने वाला समतावादी समाज चाहते थे। लेकिन नौकरशाही ने उन्हें एक ‘लाइसेंस राज’ दे दिया, जिसने हमारी आर्थिक स्वतंत्रता छीन ली। नेहरू को दोष देना कठिन है। इंदिरा गांधी को दोष देना चाहिए। उन्होंने रास्ता नहीं बदला जबकि जापान, कोरिया और ताइवान पहले ही रास्ता दिखा चुके थे।”
विक्स बनाकर तोड़ा कानून
उन दिनों भारत में फ्लू महामारी फैली हुई थी। परिणामस्वरूप, विक्स के खांसी और सर्दी से जुड़े उत्पादों की पूरी श्रृंखला की बिक्री तेजी से बढ़ी। मांग को पूरा करने के लिए फैक्ट्री ने ओवरटाइम काम किया। सीजन के अंत में कंपनी ने रिकॉर्ड मुनाफा घोषित किया। कंपनी के लॉ डिपार्टमेंट को छोड़कर सभी खुश थे।
दास अपनी किताब में लिखते हैं, “आँखों में डर लिए कंपनी सचिव लंबे चेहरे वाले दो वकीलों के साथ मेरे कमरे में आए। हमारी बिक्री हमारे आधिकारिक लाइसेंस में अधिकृत उत्पादन क्षमता से अधिक हो गई थी। हमने कानून तोड़ा था और इसका मतलब जेल की सज़ा हो सकती है। वे बचाव का मसौदा तैयार करने में मेरी मदद चाहते थे। हम नायक से अपराधी बन गए थे और कार्यालय में मातम छा गया था।”
जल्द ही कंपनी को दिल्ली से एक सम्मन मिला। यह सुनवाई का शुरुआती चरण था लेकिन दास का उपस्थित रहना जरूरी था। गुरुचरण दास लिखते हैं, “दो वकील मेरे साथ संयुक्त सचिव के कार्यालय गए, जहां हमें घंटों इंतजार कराया गया। जब हम अंदर दाखिल हुए तो अधिकारी अखबार पढ़ रहा था। उसने पूछा- क्या है? एक वकील ने उन्हें समन की एक प्रति सौंपी। उसने चिढ़कर उस पर नज़र डाली। ‘क्या?’ उसने दोहराया। मैंने घबराते हुए समझाया कि फ्लू महामारी के कारण हमारे उत्पादों की अतिरिक्त मांग बढ़ गई है। फार्मेसियों में दवाइयों की कमी न हो, इसे ध्यान में रखकर हमने अपना कर्तव्य निभाया था। हमारे उत्पाद उन लाखों माताओं के लिए राहत बना जिनके बच्चे फ्लू से पीड़ित थे।”
अधिकारी ने दास को बीच में ही रोका। दास के मुताबिक, उसकी आवाज़ में चिड़चिड़ापन झलक रहा था। उसने गरजते हुए कहा, ‘लेकिन आपने कानून तोड़ा है!’
दास लिखते हैं, “मैंने विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया कि कानून में कुछ गड़बड़ है जो किसी को ऐसी चीजें बनाने के लिए दंडित करता है जिससे लाखों बीमार लोगों को फायदा हुआ हो। कहीं और तो बीमारों, विशेषकर बच्चों के इलाज के लिए सराहना की जाती है। संयुक्त सचिव ने बातचीत खत्म होने का संकेत देते हुए अपनी कुर्सी पीछे धकेल दी। उनसे कहा- हमने कानून तोड़ा है और अब कानून अपना काम करेगा।”
कानून तोड़ा लेकिन नहीं हुई कार्रवाई, क्यों?
सरकारी अधिकारी की डांट सुनने के बाद दास जाने लगे, लेकिन तभी उन्हें लगा कि जवाब देना चाहिए। वह लिखते हैं, “जैसे ही मैं दरवाजे पर पहुंचा, मुझे नहीं पता कि क्या हुआ। मैं पलटा और उनसे पूछा कि अगर यह खबर फैले कि हमारी सरकार ने महामारी के दौरान लोगों के दुख को कम करने वाले उत्पादों का उत्पादन करने में मदद करने के लिए एक विदेशी कंपनी के कार्यकारी को दंडित किया है, तो हमारा देश दुनिया के सामने कैसा दिखेगा। न्यूयॉर्क टाइम्स के पेज तीन पर ऐसी कहानी की कल्पना करें।”
अधिकारी ने फिर गरज कर कहा- क्या आप मुझे धमका रहे हैं?
दास ने कहा, “नहीं साहब। मैं केवल एक साथी नागरिक के रूप में आपसे कॉमन सेंस इस्तेमाल करने के लिए कह रहा हूं। हमें सज़ा देकर आप हमारे प्रधानमंत्री को बाहरी दुनिया में हंसी का पात्र बना रहे होंगे।” अधिकारी ने दास पर गुस्से नज़र डाली और मुझे अपने कार्यालय से बाहर निकलने का इशारा किया।
दास लिखते हैं, “जब हम बाहर निकले तो वकील कांप रहे थे। मैं शांत था, हालांकि मैं लाइसेंस राज की बदबू से जितना संभव हो उतना दूर जाना चाहता था। मैं ऐसे नौकरशाह से मुकाबला करने के बजाय नरक में एक राक्षस से लड़ना पसंद करूंगा। यह इंदिरा गांधी के विचित्र शासन का मेरा पहला अनुभव था, जिसमें अपने ग्राहकों की जरूरतों का ध्यान रखने के बजाय, आप जीवन भर दिल्ली के सरकारी कार्यालयों के बाहर बेकार बैठे रह सकते हैं। हालांकि इस मामले में सरकार ने कभी भी जवाब नहीं लिखा और हमारे मामले को चुपचाप छोड़ दिया।”