उत्तर प्रदेश की 403 विधानसभा सीटों में से 60% में कम से कम दस हजार ब्राह्मण मतदाता होने के बाद भी, ब्राह्मणों को इस वक्त एक सर्वमान्य नेता की तलाश है। कांग्रेस के अलावा इस वक्त प्रदेश में कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं, जो इस बात का दावा कर सकता हो कि उसके पास एक ऐसा नेता है, जिसे पूरे प्रदेश में ब्राह्मण अपना नेता मानते हों। दस वर्षों में भारतीय जनता पार्टी खुद को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की पार्टी के तौर पर तब्दील करने में जुटी है। समाजवादी पार्टी ने समय-समय पर यह अहसास कराया है कि उसकी प्राथमिकता ब्राह्मण नहीं हैं। सोशल इंजीनियरिंग का सूत्र नाकाम होने के बाद बहुजन समाज पार्टी ने ब्राह्मणों से लगभग किनारा कर लिया है। रही बात कांग्रेस की तो वही इस वक्त एकमात्र ऐसी पार्टी है जिसके पास प्रमोद तिवारी की शक्ल में ऐसा नेता है, जिसे ब्राह्मण नेता कह सकता है।
उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण मतदाता 12% हैं। मतदाताओं की इस बिरादरी की अगर ताकत का अंदाजा लगाना हो तो प्रदेश की दौ सौ से अधिक विधानसभा सीटें ऐसी हैं, जहां उनकी संख्या कम से कम दस हजार के करीब है। किसी भी विधानसभा चुनाव में इन 403 विधानसभा सीटों में से 60 से 80 सीटें ऐसी हैं, जहां हार-जीत का फासला पांच हजार से कम का होता है। ऐसे में ब्राह्मणों की ताकत का अहसास लगाया जा सकता है। बावजूद इसके ब्राह्मणों को हाशिये पर रख कर सभी राजनीतिक दल अन्य जातियों को साधने की पुजोर कवायद में जुटे हैं।
भारतीय जनता पार्टी को 2014 के लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक विजय दिलाने में पार्टी के प्रदेश अयक्ष रहे लक्षमीकांत बाजपेई ने अहम किरदार अदा किया। लेकिन केन्द्र में सरकार बनते ही उन्हें पार्टी ने हाशिये पर डाल दिया। बहुत बाद में उन्हें राज्यसभा भेज कर पार्टी ने अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली। यही हाल डॉक्टरर दिनेश शर्मा का भी हुआ। योगी आदित्यनाथ के पहले कार्यकाल में उन्हें उप मुख्यमंत्री की कुर्सी दी गई। उनकी लोकप्रियता बढ़ी तो अगले कार्यकाल में उन्हें भी राज्यसभा भेज दिया गया।
‘ब्राह्मण हवा का रुख भांप कर शांत हो गया’
उधर बहुजन समाज पार्टी की 2007 में जब पूर्ण बहुमत की सरकार बनी तो सतीश चंद्र मिश्र सोशल इंजीनियरिंग के सूत्र के साथ ब्राह्मणों में लोकप्रिय हुए। उन्होंने प्रदेश भर में ब्राह्मण सम्मेलन किए, लेकिन उसके बाद उनका भी हाल वही हुआ। बसपा ने उन्हें और नकुल दुबे सरीखों को ब्राह्मणों का सर्वमान्य नेता बनने का अवसर नहीं दिया। इसकी बड़ी कीमत बसपा को चुकानी पड़ी।
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रही बात कांग्रेस की तो उत्तर प्रदेश में वही अकेली ऐसी पार्टी है जिसने उत्तर प्रदेश में सत्तारूढ़ रहते हुए हेमवती नंदन बहुगुणा, श्रीपति मिश्र, नारायण दत्त तिवारी और प्रमोद तिवारी सरीखे नेताओं को कद, पद और प्रभार सौंपे। आज भी प्रमोद तिवारी के अलावा उत्तर प्रदेश में कोई भी ऐसा नेता नहीं जिसे ब्राह्मणों की सर्वमान्य स्वीकृति प्राप्त हो।
उत्तर प्रदेश में देखते ही देखते हाशिये पर पहुंच गए ब्राह्मणों के बारे में वरिष्ठ पत्रकार रतनमणि लाल कहते हैं, बीते दस साल में उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों ने हवा का रुख भांप कर खुद की भूमिका को संकुचित कर लिया। लक्षमीकांत बाजपेई, सतीश चन्द्र मिश्र, नकुल दुबे, अशोक बाजपेई, माता प्रसाद पांडेय सरीखे नेताओं का हश्र देखने के बाद ब्राह्मणों ने खुद को संगठन और सरकार तक सीमित कर लिया। इस समय सभी राजनीतिक दलों का ध्यान अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति व अन्य पिछड़ी जातियों का वोट साधने पर केन्द्रित है। ऐसे में ब्राह्मण हवा का रुख भांप कर शांत हो गया है।
उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणों के अकेले सर्वमान्य नेता के सवाल पर कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य प्रमोद तिवारी कहते हैं, ब्राह्मणों का भरोसा जीतना सबसे दुरूह कार्य है। अपने पचास साल के राजनीतिक जीवन में कई अवसर आए, लेकिन न मैंने दल बदल किया और न ही कांग्रेस के मौलिक सिद्धांतों के साथ कोई समझौता किया। पांच दशकों से उत्तर प्रदेश का ब्राह्मण लगातार मुझे देख रहा है। यही वजह है कि उनका विश्वास मुझ पर कायम है।
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