भारत में अंतरजातीय विवाह और अंतरधार्मिक विवाह आज भी सामान्य नहीं है। ‘ऑनर किलिंग’ के आंकड़े अब भी उसकी मौजूदगी की गवाही देते हैं। ऐसे में अंदाजा लगाया जा सकता है कि 1900 के शुरुआती वर्षों में देश का माहौल कैसा होता होगा।
तब संभ्रांत परिवारों में अंग्रेजी तौर-तरीकों की सुविधाएं तो पहुंच गई थी, लेकिन सोच नहीं पहुंच पाई थी। अपनी बिरादरी से बाहर शादी करके लकीर के बाहर कोई कदम नहीं रखता था। यह एक अघोषित नियम था, जिसे पुरानी पीढ़ी बहुत अच्छी तरह से समझती थी, हालांकि नौजवान लोग इस व्यवस्था को चुनौती देने की शुरुआत कर रहे थे।
उन्हीं दिनों कुछ तरक्कीपसंद पारसी अन्तरसामुदायिक विवाहों के ज़ोरदार पैरोकार के रूप में उभरे, उनमें से एक थे जिन्ना के ससुर सर दिनशॉ। उन्होंने जमशेदजी टाटा के भतीजे रतन डी. टाटा (आरडी टाटा) के अन्तरसामुदायिक विवाह के लिए कोर्ट में कानून लड़ाई लड़ी थी। आइए आरडी टाटा हंगामाखेज शादी के बारे में जानते हैं:
पत्रकार से लेखक बनीं शीला रेड्डी ने पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की लव स्टोरी पर ‘मिस्टर और मिसेज़ जिन्ना’ (मंजुल प्रकाशन) नाम से एक किताब लिखी है। इस किताब में आरडी टाटा की शादी किस्सा भी मिलता है।
फ्रांसीसी दुल्हन और पारसी दूल्हा
आरडी टाटा अपनी बिरादरी से बाहर शादी करने वाले पहले शख़्स थे। लेकिन जब तक वह देश के बाहर थे, तब तक इस शादी को लेकर कोई विरोध नहीं था। दरअसल, उन्हें परिवार और दोस्तों दोनों का आशीर्वाद मिला था। उनके चाचा, उद्योगपति जमशेदजी टाटा ने शादी के लिए ना सिर्फ़ अपनी सहर्ष स्वीकृति दी थी, बल्कि पेरिस में हुए विवाह-समारोह में हिस्सा भी लिया था और टेम्स नदी पर एक आलीशान स्टीमर में नवविवाहित जोड़े के लिए एक स्वागत समारोह का आयोजन भी किया था।
लेकिन जब ‘आरडी’ ने अपनी फ्रांसीसी पत्नी को घर (तब बंबई) लाने, उसे सूनीबाई का नया नाम देने और उसके जोरास्ट्रियन धर्म परिवर्तन के बाद पारसी रीति से उससे पुनर्विवाह करने का फैसला किया तो बिरादरी में काफ़ी हंगामा खड़ा हो गया।
पुरातन पंथियों के डर कई दोस्तों ने शादी से बना ली दूरी
यह विवाद इस कदर गरमाया कि जब शादी हुई, तो आरडी टाटा के बहुत सारे दोस्तों ने खौफ के कारण कार्यक्रम से दूरी बना ली। हालांकि एक मुख्य पुरोहित ने शादी सम्पन्न कराया और साठ अन्य पुरोहित अनुष्ठान में शामिल हुए। सर दिनशॉ ने अन्य अक़्लमंद पारसियों की तरह विवाह से दूरी नहीं बनाई। वह तो इस मामले को अदालत में ले गए, जिसके कारण उन्हें बिरादरी की नाराजगी से जूझना पड़ा।
हाईकोर्ट में पहुंचा मामला
पारसी पंचायत ने एक गैर-पारसी के जोरास्ट्रियन धर्म परिवर्तन और उसके पारसी बनने पर रोक लगा दी थी। सर दिनशॉ ने इसे अधिकार का उल्लंघन माना और मामले को कोर्ट में ले गए। हाईकोर्ट में यह मामला दो साल (1906 से 1908) तक चला। इस दौरान वकीलों की फीस पर लाखों रुपये खर्च हुए। आखिरकार पारसियों के अधिकारों और अस्मिता को परिभाषित करने वाला ऐतिहासिक फैसला आया। हालांकि सर दिनशॉ को व्यक्तिगत रूप से इससे कुछ हासिल नहीं हो सका, सिवाय उदारपंथी होने की ख्याति के।