भारतीय जनसंघ के संस्थापक और हिन्दू महासभा के पूर्व अध्यक्ष डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी को उनकी जयंती (छह जुलाई) पर भाजपा-आरएसएस से जुड़े लोग याद कर रहे हैं। भाजपा ने मुखर्जी को राष्ट्रीय एकता व अखंडता का पर्याय बताते हुए ट्वीट किया है, ”राष्ट्रीय एकता व अखंडता के पर्याय, महान शिक्षाविद्, प्रखर राष्ट्रवादी और भारतीय जनसंघ के संस्थापक परम श्रद्धेय डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की जयंती पर कोटि-कोटि नमन।
मुखर्जी को भाजपा यह उपमा (राष्ट्रीय एकता व अखंडता का पर्याय) कश्मीर को लेकर चलाए उनके आन्दोलन के लिए देती रही है। लेकिन इतिहास की रोशनी में देखें तो यह भाजपा की सपाटबयानी और एकपक्षीय मालूम पड़ती है, क्योंकि भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में कुछ ऐसे भी प्रसंग दर्ज हैं, जो श्यामा प्रसाद मुखर्जी को अखंडता के पर्याय के अलावा भारत को खंडित करने वालों का पक्षधर भी साबित करता है।
मुखर्जी ने मुस्लिम लीग के साथ चलाई सरकार: सन् 1940 में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग ने लाहौर में तीन दिवसीय सम्मेलन किया था। 22 से 24 मार्च तक मिंटो पार्क में चले इस सम्मेलन में 23 मार्च को मुस्लिम लीग ने अलग पाकिस्तान बनाने के प्रस्ताव पारित किया था। भारत को टुकड़ों में बांटने वाले इस प्रस्ताव को बंगाल के लीग के वरिष्ठ नेता अबुल कासिम फजलुल हक ने पेश किया था।
यह दूसरे विश्व युद्ध का दौर था। अंग्रेज भारतीय को युद्ध में झोंक रहे थे। कांग्रेस इसके खिलाफ अलग-अलग राज्यों में चल रही अपनी सरकारों को भंग करने का निर्देश दे रही थी। ठीक उसी वक्त हिन्दू महासभा मुस्लिम लीग के साथ मिलकर सिंध, उत्तर पश्चिम प्रांत और बंगाल में सरकार बना रही थी। 1941 में हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग के गठबंधन से बंगाल में बनी सरकार के प्रीमियर यानी प्रधानमंत्री थे फजलुल हक और वित्त मंत्री थे श्यामा प्रसाद मुखर्जी। भारत विभाजन का प्रस्ताव पेश करने वाले फजलुल की सरकार में मुखर्जी 11 महीने वित्त मंत्री रहे।
श्यामा प्रसाद मुखर्जी और हिन्दू महासभा को यह पता था कि मुस्लिम लीग भारत को खंडित करने का संकल्प ले चुकी है, बावजूद इसके उन्होंने न सिर्फ सरकार बनाई और चलाई बल्कि उस पर गर्व भी महसूस किया। हिन्दू महासभा के तत्कालीन अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकर ने सन् 1942 में कानपुर में हुए हिन्दू महासभा के 24वें सम्मेलन में कहा था, ”बंगाल का मामला मशहूर है। मुस्लिम लीग के लोग, जिन्हें कांग्रेस भी अपनी विनयशीलता से नहीं समझा सकी थी, हिन्दू महासभा के संपर्क में आने के बाद समझौता करने को राज़ी हो गए, फ़जुलल हक़ के प्रीमियरशिप में बनी और महासभा के हमारे नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी के कुशल नेतृत्व में चलने वाली साझा सरकार लगभग एक साल तक सफलतापूर्वक काम करती रही और इससे दोनों ही समुदायों को फायदा हुआ।”
भारत छोड़ो आंदोलन का किया था विरोधः मुस्लिम लीग के साथ सरकार चलाते हुए श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने स्वतंत्रता संग्राम के अहम आंदोलन ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ का न सिर्फ विरोध किया था, बल्कि उसे कुचलने के लिए अंग्रेजी हुकूमत को उपाय भी सुझाया था। 26 जुलाई, 1942 को बंगाल के गवर्नर सर जॉन आर्थर हरबर्ट को पत्र लिखे अपने पत्र में मुखर्जी कहते हैं, ”सवाल यह है कि बंगाल में भारत छोड़ो आन्दोलन को कैसे रोका जाए। प्रशासन को इस तरह काम करना चाहिए कि कांग्रेस की तमाम कोशिशों के बावजूद यह आन्दोलन प्रांत में अपनी जड़ें न जमा सके। सभी मंत्री लोगों से यह कहें कि कांग्रेस ने जिस आज़ादी के लिए आंदोलन शुरू किया है, वह लोगों को पहले से ही हासिल है।”
सवाल उठता है कि अगर श्यादा प्रसाद मुखर्जी राष्ट्र की एकता और अखंडता को लेकर संकल्पित थे, तो मुस्लिम लीग के साथ सरकार क्यों चलाई? वैसे श्यामा प्रसाद मुखर्जी जिस हिन्दू महासभा के सदस्य थे, उसके संस्थापक विनायक दामोदर सावरकर मुस्लिम लीग से पहले ही द्विराष्ट्र का सिद्धांत दे चुके थे। भारत के संदर्भ में द्विराष्ट्र का सिद्धांत यानी हिन्दुओं और मुस्लिमों के लिए अलग-अलग देश का सिद्धांत।
1937 में हिन्दू महासभा का राष्ट्रीय अधिवेशन अहमदाबाद में हुआ था। इसी अधिवेशन में सावरकर ने कहा था, ”भारत में दो विरोधी राष्ट्र एक साथ बसते हैं, कई बचकाने राजनेता यह मानने की गंभीर भूल करते हैं कि भारत पहले से ही एक सद्भावनापूर्ण राष्ट्र बन चुका है या यही कि इस बात की महज इच्छा होना ही पर्याप्त है।… किन्तु ठोस वस्तुस्थिति यह है कि कथित सांप्रदायिक प्रश्न हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सदियों से चली आ रही सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय शत्रुता… की ही विरासत है … भारत को हम एक एकजुट और समरूप राष्ट्र के तौर पर समझ नहीं सकते, बल्कि इसके विपरीत उसमें मुख्यतः दो राष्ट्र बसे हैं: हिंदू और मुस्लिम।” सावरकर के इस भाषण को समग्र सावरकर वाङ्गमय-खंड 6 के पेज नंबर 296 पर पढ़ा जा सकता है। श्यामा प्रसाद मुखर्जी 1943 में इसी हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने थे।
श्यामा का संकल्प: 6 जुलाई 1901 को मुखर्जी का जन्म कोलकाता के एक संभ्रांत परिवार में हुआ था। यह 33 वर्ष की आयु में ही कलकत्ता यूनिवर्सिटी के कुलपति बन गए थे। पहले कांग्रेस से जुड़े थे, बाद में मतभेद के कारण पार्टी से इस्तीफा दे दिया। जवाहरलाल नेहरू ने अपनी अंतरिम सरकार ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी को मंत्री बनाया था लेकिन उन्होंने कश्मीर के मुद्दे पर मंत्री पद से भी इस्तीफा दे दिया था। वह कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने और धारा-370 के खिलाफ थे, उनका कहना था कि ‘एक देश में दो निशान, दो विधान और दो प्रधान नहीं चलेंगे।’
इसके खिलाफ मुखर्जी ने 1952 में जम्मू के भीतर एक विशाल रैली को संबोधित किया था। 11 मई 1953 को उन्होंने बगैर परमिट कश्मीर में जाने की कोशिश की। दरअसल तब केंद्र सरकार ने कश्मीर को डिफेंस ऑफ इंडिया रूल के तहत “युद्ध क्षेत्र” घोषित किया था। आवाजाही पर प्रतिबन्ध था और ये प्रतिबन्ध सिर्फ बाहरी लोगों के लिए नहीं बल्कि कश्मीरियों के लिए भी था। उन्हें भी विशेष पास के बिना आवागमन की अनुमति नहीं थी। प्रतिबंध तोड़ने के लिए श्यामा प्रसाद मुखर्जी को गिरफ्तार किया गया। मुखर्जी के अनुयायी दावा करते हैं कि उन्हें जेल में रखा गया, जबकि तथ्य यहा कि उन्हें निशात बाग के एक निजी घर में रखा गया था। यहीं मुखर्जी की हृदयाघात से मौत हुई थी, जिसे हिन्दू दक्षिणपंथी रहस्यमयी मौत बताते हैं।
