‘एक देश-एक चुनाव’ (One Nation, One Election) को लेकर पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के नेतृत्व बनाया गया पैनल अपना काम कर रहा है। पिछले दिनों विधि आयोग (Law Commission) ने पैनल के साथ चर्चा की। देश में विधानसभा और लोकसभा के चुनाव एक साथ किस तरह कराए जा सकते हैं, इसे लेकर विधि आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति ऋतुराज अवस्थी ने पैनल से बातचीत की है। कुल मिलाकर काम तेजी से चल रहा है।
दूसरी तरफ भारत के पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त (Former Chief Election Commissioner) एसवाई कुरैशी (SY Quraishi) का अभी भी मानना है कि ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ ‘समाधान’ नहीं है। वन नेशन-वन इलेक्शन के समर्थन में तर्क देते हुए अक्सर कहा जाता है कि बार-बार चुनाव होने से नेताओं को जनता के लिए काम करने का समय नहीं मिल पाता, चुनाव में खर्च ज्यादा होता है, बार-बार आदर्श आचार संहिता लागू होने से विकास कार्य बाधित होते हैं, आदि।
हाल में The Indian Express के चर्चित कार्यक्रम आइडिया एक्सचेंज (Idea Exchange) में शामिल हुए, कुरैशी ने इन सभी तर्कों पर कड़े सवाल उठाए। कुरैशी से द इंडियन एक्सप्रेस की डिप्टी एडिटर लिज़ मैथ्यू ने पूछा कि ‘वन नेशन-वन इलेक्शन’ में चुनाव आयोग की क्या भूमिका होगी?
इस सवाल पर पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ने मजाकिया लहजे में कहा, “चुनाव पांच साल में सिर्फ एक बार चुनाव होगा, इसका कि हमारे पास गोल्फ खेलने के लिए अधिक समय होगा। एक चुनाव के बाद अगर पांच साल तक चुनाव नहीं होगा तो कुछ करने को नहीं रहेगा। ये हमारे लिए सबसे अच्छा होगा। मतदाता वही है, मतदान केंद्र वही है, चुनाव कराने वाले लोग – जिला प्रशासन – और सुरक्षा तंत्र वही हैं। आप पांच साल में कई बार बटन दबाने के बजाए, एक बार दबाकर पांच साल तक आराम करें।”
कुरैशी ने आगे कहा, “वन नेशन-वन इलेक्शन के समर्थन में यह कहा जाता है कि बार-बार चुनाव होने से राजनीतिक कार्यकर्ताओं को अपना काम करने का समय नहीं मिलता है। मैं पूछता हूं चुनाव के अलावा राजनीतिक कार्यकर्ताओं के पास और क्या-क्या जरूरी चीजें हैं? पिछले चुनाव (2019) में सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज ने चुनाव पर 60,000 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान लगाया था। हम इसे 60,000 करोड़ रुपये से घटाकर 6,000 करोड़ रुपये तक ला सकते हैं। बस पार्टी के खर्च पर एक सीमा लगा दीजिए।”
आदर्श आचार संहिता को लेकर कुरैशी कहते हैं, “आदर्श आचार संहिता लागू होने के बाद कोई नई योजना का आदेश नहीं दिया जा सकता, कोई नया स्थानांतरण नहीं किया जा सकता। ऐसा क्यों है कि सत्ता में रहने के चार साल 11 महीने बाद सरकार के दिमाग में ये उज्ज्वल विचार (नई योजना लाने या अधिकारियों का तबादला करने) आते हैं? फिर कहते हैं, क्या बेकार चुनाव आयोग है। चुनाव आयोग की पूर्व अनुमति से किसी नई योजना की अनुमति दी जा सकती है। एक बार, मेरे समय में, तत्कालीन सरकार पेट्रोल की कीमत कम करना चाहती थी। आम तौर पर पेट्रोल की कीमत में कमी का मतलब होगा कि अचानक बहुत सारे वोट वहां चले जाएंगे। लेकिन हम बाबुओं या क्लर्कों की तरह नहीं सोचते। व्यापक राष्ट्रीय हित में हमने इसकी अनुमति दी।”
समाधान बताते हुए कुरैशी कहते हैं, “अब समय आ गया है कि हमें एक ही चरण में चुनाव कराना चाहिए। ढाई महीने जिस तरह की नफरत, अफवाह, फर्जी खबरें और बकवास फैलाई जाती है, उससे नागरिकों की सुरक्षा को खतरा है। एक चरण का चुनाव सबसे अच्छा चुनाव होता है।”
क्या आदर्श आचार संहिता अब भी कारगर है?
इस सवाल के जवाब में कुरैशी कहते हैं, “मुझे अब भी लगता है कि यह बहुत प्रभावी है। यह दुनिया भर में चुनाव की अनूठी विशेषताओं में से एक है क्योंकि यह कोई कानून नहीं है। यह किसी राजनीतिक दल द्वारा अच्छे आचरण के लिए बनाई गई स्वैच्छिक आचार संहिता है। बहुत से लोग चुनाव आयोग की आलोचना करते हैं और कहते हैं कि यह दंतहीन और रीढ़विहीन है, और केवल चेतावनियां देता है। एक बार प्रकाश सिंह बादल ने हमारे सीईओ कुसुमजीत सिद्धू से कहा था कि आप चुनाव आयोग के कारण बहुत स्वतंत्र होकर काम कर रहे हैं। एक बार जब आप हमारे कैडर में वापस आएंगे तो मैं आपसे बात करूंगा। उन्होंने आचार संहिता का उल्लंघन किया और चुनाव कर्मियों को धमकाया। मैंने कड़े शब्दों का इस्तेमाल करते हुए उन्हें पत्र लिखा। उसी दिन उन्हें माफीनामा लिखना पड़ा। चुनाव आयोग की नोटिस से राजनेताओं की छवि खराब होती है। लोगों को यह बात झकझोर देती है कि आचार संहिता का नोटिस आया और वे दोषी पाए गए। मुझे ख़ुशी है कि मैंने अपने समय में इसका उपयोग नहीं किया। लेकिन कुछ चीफ इलेक्शन कमिशनर आर्टिकल 324 का उपयोग करते हैं और यदि आप मॉडल कोड का उल्लंघन करते हैं, तो आप तीन दिनों तक प्रचार नहीं कर सकते। यदि किसी बड़े नेता को तीन-चार दिन प्रचार करने से रोक दें, तो यह एक बड़ी सजा है।”
पूर्व चुनाव आयुक्त ने चुनावी बॉन्ड पर उठाए सवाल
एसवाई कुरैशी ने इलेक्टोरल बॉन्ड पर सवाल उठाते हुए कहा कि इसे राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता लाने की बात कह लाया गया था। लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड के आने से पहले जो पारदर्शिता थी, वह भी खत्म हो गई। पहले 20,000 से अधिक के सभी डोनेशन की जानकारी चुनाव आयोग को होती थी, जिसे पब्लिक किया जाता था। अब यह नहीं पता कि किस पार्टी को कौन कितना चंदा दे रहा है। सरकार का कहना है कि दानकर्ता गोपनीयता चाहते हैं। मैं पूछता हूं कि वे गोपनीयता क्यों चाहते हैं ताकि डोनेशन के बदले मिलने वाले फायदों को छिपा सकें?
