अयोध्या में निर्माणाधीन राम मंदिर के पहले चरण में 22 जनवरी को मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा होनी है। इससे पहले हिंदू धर्म को लेकर खूब चर्चा हो रही है। मनोरंजन जगत, राजनीति, न्यायपालिका और इतिहास के अध्ययन से जुड़े लोग धर्म की बहस को लगातार ज्वलंत बनाए हुए हैं। सबसे ताजा बयान ममता बनर्जी का है, जिन्होंने कहा है कि धर्म व्यक्तिगत मसला है, त्यौहार सार्वभौम (सबको जोड़ने वाला) होते हैं।
ममता से पहले बिहार के शिक्षा मंत्री प्रो. चंद्रशेखर ने समाजसेवी सावित्रीबाई फुले को उद्धत करते हुए मंदिर को मानसिक गुलामी का रास्ता बताया था। जबकि चंद्रशेखर खुद मंदिर जाते हैं और सोशल मीडिया पर तस्वीर भी डालते हैं।
इससे पहले 6-7 जनवरी को गुजरात यात्रा पर गए भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने द्वारका और सोमनाथ मंदिर में दर्शन किया था। उन्होंने मंदिरों की ध्वजा को एकजुट करने वाली शक्ति बताई थी। साथ ही अपनी यात्रा को महात्मा गांधी की यात्रा से प्रेरित बताया था। उनकी बात की काट पेश करते हुए इतिहासकार रामचंद्र गुहा ने खंडन एक लेख लिख दिया।
जस्टिस चंद्रचूड़ ने एक पुराने इंटरव्यू में बताया था कि वह रोज घर से प्रार्थना करके ही निकलते हैं और इसका सकारात्मक असर काम पर भी पड़ता है। प्रार्थना के दौरान एकांत में बिताया गया वक्त उन्हें पूरे दिन शांति का अहसास कराता है। उन्होंने यह भी कहा था कि मैं आध्यात्मकिता के बारे में अपने विचार किसी पर नहीं थोपता और अदालत में संविधान के मूल्यों के अमल के लिए प्रतिबद्ध रहता हूं।
25 दिसंबर, 2023 को सुप्रीम कोर्ट के नंबर दो जज की हैसियत से रिटायर हुए जस्टिस संजय किशन कौल ने भी इस बारे में अपनी राय रखी थी। उन्होंने जनसत्ता.कॉम के संपादक विजय कुमार झा से बातचीत में कहा था कि वह धर्म में आस्था रखते हैं, लेकिन यह पूरी तरह से व्यक्तिगत है और इसका काम पर असर नहीं पड़ता है।
धर्म को लेकर इन जजों की निजी राय से इतर न्यायपालिका में कुछ ऐसे उदाहरण हैं जहां जजों ने अदालती कार्यवाही के दौरान या फैसले में धर्म-अध्यात्म या पौराणिक ग्रंथों का हवाला दिया है। यहां हम कुछ उदाहरणों के माध्यम से जानेंगे कि कैसे अलग-अलग मौकों पर जजों ने धर्म और धर्म शास्त्रों की अपनी-अपनी व्याख्या प्रस्तुत की है।
वेदों से शुरू हुआ हमारा लीगल सिस्टम- जस्टिस (रि.) नजीर
दिसंबर 2021 में सुप्रीम कोर्ट के जज (अब सेवानिवृत्त) एस अब्दुल नजीर ने कहा था कि हमारी कानूनी प्रणाली हजारों साल पहले वेदों और समकालीन स्वदेशी रीति-रिवाजों से शुरू हुई थी। हालांकि, यह समय के साथ विदेशी और घरेलू दोनों प्रभावों के सम्मिश्रण से विकसित हुआ। जस्टिस (रि.) नजीर ने यह बात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वकीलों की शाखा अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में कही थी।
जज ने रेप पीड़िता को दी मनुस्मृति पढ़ने की सलाह
पिछले साल जून में गुजरात हाईकोर्ट ने 17 साल की गर्भवती बलात्कार पीड़िता को मनुस्मृति पढ़ने का सुझाव दिया था। न्यायमूर्ति समीर दवे ने 17 साल की उम्र में मां बनने को सामान्य बताते हुए कहा था, “पुराने समय में लड़कियों की 14-15 साल की उम्र में शादी हो जाना और 17 साल की उम्र से पहले बच्चा पैदा करना सामान्य बात थी…इसके बारे में जानने के लिए एक बार मनुस्मृति जरूर पढ़ें।”
मनुस्मृति संस्कृत में लिखी एक पुरानी ‘न्याय संहिता’ है, जिसकी अक्सर आलोचना होती है। भारत के पहले कानून मंत्री डॉ. भीम राव अंबेडकर ने सार्वजनिक रूप से मनुस्मृति को जलाया था।
क्लाइमेट एक्टिविस्ट को जमानत देते हुए ऋग्वेद का हवाला
साल 2021 में क्लाइमेट एक्टिविस्ट दिशा रवि को जमानत देते हुए दिल्ली की एक कोर्ट के जज ने ऋग्वेद का हवाला दिया था। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश धर्मेंद्र राणा ने कहा था, “हमारी यह 5000 साल पुरानी सभ्यता कभी भी विभिन्न वर्गों के विचारों के खिलाफ नहीं रही है।” ऋग्वेद हिंदू समुदाय द्वारा पूजनीय चार वेदों में से सबसे पुराना है।
मैं ईसाई हूं लेकिन हिंदू धर्म से प्यार करता हूं- जस्टिस (रि.) जोसेफ
सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस केएम जोसेफ ने फरवरी 2023 में कहा था कि वह ईसाई हैं लेकिन फिर भी हिंदू धर्म से बहुत प्यार करते हैं। देश में प्राचीन सांस्कृतिक और धार्मिक स्थानों के “मूल” नामों को बहाल करने के लिए एक नामकरण आयोग के गठन की मांग वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए जस्टिस (रि.) जोसेफ ने कहा था, “मैं एक ईसाई हूं, लेकिन मुझे अभी भी हिंदू धर्म से बहुत प्यार है, जो एक महान धर्म है और इसे कमतर नहीं आंका जाना चाहिए। हिंदू धर्म जिस ऊंचाई पर पहुंच गया है और उपनिषदों, वेदों और भगवद गीता में इसका उल्लेख किया गया है, वह किसी भी प्रणाली में असमान है। हिंदू धर्म जिस ऊंचाई पर पहुंच गया है तत्वमीमांसा में महान ऊंचाइयां। हमें इस महान धर्म पर गर्व होना चाहिए और इसे छोटा नहीं करना चाहिए।”
जजों को धर्म की व्याख्या क्यों नहीं करनी चाहिए?
हार्वर्ड लॉ स्कूल से एलएलएम अरविंद कुरियन अब्राहम ने द वायर (न्यूज वेबसाइट) पर एक लेख लिखकर बताया है कि जजों को धर्म की व्याख्या क्यों नहीं करनी चाहिए। अब्राहम उदाहरण देते हुए समझाते हैं, “यह निर्धारित करते समय कि क्या कोई प्रथा अमुक धर्म के लिए आवश्यक है या नहीं, अक्सर अदालतें प्रासंगिक धार्मिक ग्रंथों की समीक्षा का सहारा लेती हैं । हालांकि, धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन, क़ानून की व्याख्या करने से कहीं अधिक जटिल है। धार्मिक मान्यताएँ स्थिर नहीं रहती हैं। इतिहास में विभिन्न चरणों में व्याख्याओं के विभिन्न रूप विकसित होते हैं। उदाहरण के लिए 1978 में मॉर्मन चर्च ने काले अफ़्रीकी वंश के लोगों को पादरी बनने से रोकने के अपने 130 साल पुराने सिद्धांत को त्याग दिया था।”
अब्राहम एक अन्य उदाहरण देते हैं, भारत के विभिन्न हिस्सों में हिंदू गाय को एक पवित्र जानवर के रूप में देखते हैं और गोमांस के सेवन को वर्जित मानते हैं। जबकि केरल में हिंदुओं के बीच गोमांस का सेवन व्यापक रूप से प्रचलित है। यदि गोमांस तक पहुंच को प्रतिबंधित करने के लिए एक कानून पारित किया जाता है, और एक हिंदू यह दावा करता है कि यह उसकी धार्मिक प्रथाओं पर प्रतिबंध है, तो अदालत के लिए यह निर्धारित करना मुश्किल होगा कि गोमांस का उपयोग उसके धार्मिक विश्वास का हिस्सा है या नहीं।”