देश में एक बार फिर आरक्षण चर्चा का विषय बना हुआ है। अजीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर सस्टेनेबल एम्प्लॉयमेंट द्वारा हाल में जारी एक रिपोर्ट (स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2023) से उन क्षेत्रों में दलितों के प्रतिनिधित्व का पता चलता है, जहां आरक्षण लागू नहीं है। फर्म ओनरशिप डेटा का विश्लेषण कर ‘स्टेट ऑफ वर्किंग इंडिया 2023’ में बताया गया है कि बड़े उद्यमों में सामान्य जातियों का प्रतिनिधित्व बहुत ज्यादा है।
1983 से 2021 के बीच दलित समुदाय के रेगुलर वेज वर्कर्स (ऐसे मजदूर जिन्हें नियमित रूप से काम मिलता रहा) का अनुपात बढ़ा है। हालांकि यह अब भी सामान्य जातियों के रेगुलर वेज वर्कर्स के अनुपात से बहुत कम है। 2021 में कुल रेगुलर वेज वर्कर्स में 22% अनुसूचित जाति और OBC, 14% आदिवासी और 32% सामान्य जातियों के श्रमिक थे। अनुसूचित जाति के श्रमिकों की तुलना में सामान्य जाति के श्रमिकों के बीच स्वरोजगार की दर भी अधिक है।

दलित अब भी आकस्मिक कमाई के भरोसे
ऐसे मजदूर जिन्हें नियमित रूप से काम नहीं मिलता यानी रोजाना कमाई नहीं होती उन्हें कैजुअल वर्कर्स कहते हैं। 2004 में दलित समुदाय के कैजुअल वर्कर्स में 85.5% ऐसे थे, जिनके बेटे भी कैजुअल वर्कर थे। 2018 में स्थिति थोड़ी बदली और आंकड़ा 75.6% हो गया।

दूसरी तरफ सामान्य जातियों में यह बदलाव बड़े पैमाने पर हुआ है। 2004 में सामान्य जातियों के कैजुअल वर्कर्स में 83.2% ऐसे थे, जिनके बेटे भी कैजुअल वर्कर थे। 2018 में सामान्य जातियों के ऐसे पिताओं की संख्या 53% रह गई। यानी दलित समुदाय की तुलना में सामान्य जातियों के कामगारों की कमाई में अधिक नियमितता आयी है।

2004 की तुलना में 2018 में कैज़ुअल वेज वर्कर्स के बेटे आकस्मिक कमाई वाले कामों को छोड़कर अनौपचारिक, अर्ध-औपचारिक और औपचारिक नियमित वेतन काम की ओर बढ़े हैं। उदाहरण के लिए 2004 में कैजुअल वेज पर काम में लगे एससी/एसटी पिताओं में से केवल 0.2% के बेटे औपचारिक (रेगुलर वेज) काम में थे। 2018 में यह संख्या बढ़कर 2% हो गई। वहीं सामान्य जातियों में यह संख्या 0% से बढ़कर 4.7% हो गई। इससे पता चलता है कि दलित समुदाय का एक बड़ा वर्ग अब भी आकस्मिक कमाई की आशा में रहता है।
कूड़ा उठाने और गटर सफाई के काम में अब भी दलितों की अधिकता
1983 से 2021 के बीच तंबाकू, शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक कार्य और कपड़ा जैसे उद्योगों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ा है। वहीं कूड़ा प्रबंधन और गटर सफाई के काम से महिलाएं बाहर निकली हैं। यानी इन क्षेत्रों में उनकी संख्या कम हुई है। हालांकि इस थोड़े बदलाव के बावजूद इन सभी क्षेत्रों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अधिक है।
इसी अवधि (1983 से 2021) में कूड़ा प्रबंधन और गटर सफाई, लेदर और लेदर प्रोडक्शन जैसे क्षेत्र में दलितों की संख्या घटी है। हालांकि उनकी संख्या अब भी दूसरी जातियों की तुलना में बहुत अधिक है। 2021 तक खनिजों, लड़कियों और लकड़ी के उत्पादों जैसे उद्योगों में दलित समुदाय का प्रतिनिधित्व बढ़ता रहा है। लेकिन इसके बाद उनकी संख्या गिरती गई और गिरते-गिरते 1983 के समान या उससे नीचे आ गई।

दलित-आदिवासी महिलाओं की रोजगार दर
सामान्य तौर पर निचली जाति की महिलाओं में उच्च जाति की महिलाओं की तुलना में रोजगार दर अधिक होती है। 2021-22 तक 40 प्रतिशत आदिवासी और 25 प्रतिशत दलित महिलाएं रोजगार में थीं। वहीं सामान्य जातियों की केवल 21 प्रतिशत महिलाएं रोजगार में थीं।
सामान्य तौर पर निचली जाति की महिलाओं में उच्च जाति की महिलाओं की तुलना में रोजगार दर अधिक होती है। 2021-22 तक 40 प्रतिशत आदिवासी और 25 प्रतिशत दलित महिलाएं रोजगार में थीं। वहीं सामान्य जातियों की केवल 21 प्रतिशत महिलाएं रोजगार में थीं।
2004 में आदिवासी महिलाओं की रोजगार दर 55 प्रतिशत थी, जो 2017 में गिरकर 30 प्रतिशत हो गई। बाद में 2021 में बढ़कर लगभग 40 प्रतिशत हो गई। गैर-एससी/एसटी महिलाओं की रोजगार दर 2004 में 26 प्रतिशत थी, जो 2017 में 16 प्रतिशत हो गई और फिर 21 प्रतिशत पर आ गई।