बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और इन क्षेत्रों से लगे इलाकों में छठ का त्योहार मनाया जा जाता रहा है। इन इलाकों से निकले लोग देश-दुनिया के जिस भी कोने में पहुंचे, अब छठ वहां भी मनाया जाता है। यह त्योहार कितना पुराना है, इसे लेकर लोगों की अलग-अलग राय है।
दरअसल यह पर्व आम लोगों मनाते रहे हैं, और इतिहास राजाओं महाराजाओं का लिखा जाता रहा है इसलिए इस त्योहार का कोई लिखित ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता। अंग्रेजों के आने के बाद से उनके संस्मरणों में इसका जिक्र जरूर मिलता है।
जैसे ब्रिटिश इंडिया के गवर्नर जनरल जॉर्ज ईडन की बहन फेनी एडेन ने अपने संस्मरण ‘टाइगर्स, दरबार’स एंड किंग्स: फेनी ईडन’स इंडियन जर्नल्स 1837-38’ में पटना घाट पर छठ मान रही महिलाओं के बारे में लिखा है। फेनी अपनी बहन एमिली और भाई ईडन के साथ साल 1837 के नवंबर में पटना घूमने पहुंची थी।
वह लिखती हैं, ”बेहतरीन पोशाकों में सजे, फल और सब्जियों से भरे टोकरे लिए स्थानीय निवासियों के घाट पर जमा हो जाने से गंगा नदी बेहद खूबसूरत दिखने लगी थी। यह इन लोगों का तीन दिनों तक मनाया जाने वाला धार्मिक त्योहार है।
मुझे यह देख थोड़ा अजीब लगा कि वहां मौजूद स्त्री, पुरुष और यहां तक कि छोटे बच्चे भी चमकीले नारंगी, गुलाबी और लाल रंग के कपड़ों से पूरी तरह ढके हुए थे। छोटे बच्चों का सिर्फ चेहरा ही बाहर दिख रहा था। सैकड़ों की संख्या में मौजूद लोग अपनी फलों से भरी टोकरियों को गंगा में डुबोकर प्रार्थना कर रहे थे। इससे सुंदर और कोई दृश्य नहीं हो सकता था।” नवभारत गोल्ड पर अरुण सिंह के लेख में फेनी के संस्मरण का यह हिस्सा प्रकाशित हुआ है। कुछ लोग साँची स्तूप के हिस्सों में छठ पर्व की आकृति खोजकर इसे बौद्ध धर्म से भी जोड़ते हैं।
चार दिन का होता है पर्व
दीपावली के ठीक छह दिन बाद छठ का पहला अर्घ्य दिया जाता है। हालांकि इसकी शुरुआत दो दिन पहले ‘नहाय खाय’ से होती है। इस दिन स्नान के बाद शाकाहारी भोजन कर व्रती पूजा की शुरुआत करती हैं। दूसरे दिन को खरना कहा जाता है। इस दिन व्रत धारी को पूरे दिन उपवास रहकर शाम में खरना का प्रसाद खाना होता है।
तीसरे दिन सुबह से छठ का प्रसाद बनाना शुरू होता है, जिसमें ठेकुआ, खस्ता, गुड़ और आटे के मीठे पकोड़े, चावल के लड्डू आदि शामिल होते हैं। इसी रोज शाम में बांस की टोकरी और सूप में फल सजाकर डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। अगली सुबह फिर उगते सूर्य को अर्घ्य देने के साथ त्योहार पूरा होता है।
क्यों कहा जाता है लोक आस्था का पर्व?
छठ का उपवास मुख्य रूप से हिंदू महिलाएं रखती हैं, लेकिन पुरुषों और मुस्लिम धर्मावलंबियों को भी ऐसा करते देखना बहुत विचित्र नहीं है। छठ के गढ़ बिहार में यह त्योहार परंपरा का हिस्सा बन चुका है। इसमें ‘छठ माई’ तक अपनी बात पहुंचाने के लिए किसी मध्यस्थ या पुजारी की आवश्यकता नहीं होती। न ही किसी मंत्र का जाप होता। उपवास रहने वाली महिलाएं छठ का लोक गीत गाकर प्रार्थना करती हैं। छठ के प्रचलित गीतों का भी कोई लिखित इतिहास नहीं मिलता, वह भी मौखिक रूप से ही एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचा है।
बीमारी के इलाज से जुड़ा है छठ पर्व!
बिहार सरकार के 1970 के गजेटियर में छठ को मगध का त्योहार बताया गया। मगध अर्थात वर्तमान बिहार और आस-पास के क्षेत्र। मगध में कुष्ठ की बीमारी का इतिहास रहा है। कुष्ठ चमड़ी से संबंधित एक बीमारी है।
बिहार सरकार आज भी ‘बिहार शताब्दी कुष्ठ कल्याण योजना’ चलाती है। इस योजना के तहत राज्य सरकार कुष्ठ रोगियों को पेंशन भी देती है। कुष्ठ के उपचार में सूर्य की किरणों को भी सहायक माना जाता है।
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बीबीसी की एक रिपोर्ट में धार्मिक मामलों के जानकार राजेश कर्म्हे बताते हैं कि ”पुराने समय में राजाओं और सामंतों या धनी लोगों के इलाज के लिए वैद्य हुआ करते थे। आम लोग ईश्वर की आस्था के भरोसे बीमारियों से बचने की प्रार्थना करते थे और छठ इसी आस्था से जुड़ा हुआ था। सूर्य की उपासना कई संस्कृतियों में की जाती है। यह बीमारियों से मुक्ति पाने के लिए सूर्य की पूजा से शुरू हुई परंपरा है।”