अलिंद चौहान

खालिस्तान समर्थक नेता हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के बाद से कनाडा और भारत के बीच राजनयिक गतिरोध पैदा हो गया है। कनाडा ने निज्जर की हत्या में भारतीय एजेंटों की संलिप्तता की आशंका जताई है। वहीं नई दिल्ली ने ओटावा पर ‘खालिस्तानी आतंकवादियों और चरमपंथियों’ को शरण देने का आरोप लगाया है।

इन घटनाओं ने एक बार फिर कनाडा के सिख प्रवासी लोगों को सुर्खियों में ला दिया है। 2021 की कनाडाई जनगणना के अनुसार, देश की आबादी में सिखों की हिस्सेदारी 2.1% है। भारत के बाहर सिखों की सबसे बड़ी आबादी कनाडा में ही रहती है। हालांकि, इस संख्या में आश्चर्यचकित होने जैसा कुछ नहीं है। एक सदी से भी अधिक समय से सिख कनाडा में प्रवास कर रहे हैं।

आइए जानते हैं, सिख कनाडा क्यों जाने लगे? कनाडा जाने वाले पहले सिख कौन थे? और उन्हें किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा?

पहली बार कनाडा कैसे पहुंचे सिख?

यूनिवर्सिटी ऑफ लंदन के स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज के एमेरिटस प्रोफेसर गुरहरपाल सिंह ने द न्यू यॉर्कर पत्रिका को बताया कि 19वीं सदी के अंत में सिखों ने विदेशों में प्रवास करना शुरू कर दिया क्योंकि वे ब्रिटिश साम्राज्य के सशस्त्र सेवाओं में शामिल थे।

सिंह ने कहा, “जहां भी साम्राज्य का विस्तार हुआ, विशेष रूप से सुदूर पूर्व-चीन, सिंगापुर, फिजी और मलेशिया और पूर्वी अफ्रीका में, सिख वहीं गए।”

सिखों का कनाडा पहुंचने का सिलसिला 1897 में महारानी विक्टोरिया की हीरक जयंती (Diamond Jubilee) के साथ शुरू हुआ। ब्रिटिश भारत सेना (25वीं कैवलरी, फ्रंटियर फोर्स) के एक रिसालदार मेजर केसूर सिंह को उस वर्ष देश में आने वाला पहला सिख निवासी माना जाता है। वह हांगकांग रेजिमेंट के हिस्से के रूप में वैंकूवर पहुंचे सिख सैनिकों के पहले समूह में से थे।

हालांकि, कनाडा में सिख प्रवास की पहली लहर 1890 के दशक के शुरुआती वर्षों में शुरू हुई थी। अधिकांश प्रवासी सिख मजदूर के रूप में कनाडा पहुंचे थे। उनका ठिकाना ब्रिटिश कोलंबिया बना। अंग्रेजों ने सिख प्रवासियों को ओंटारियो में विनिर्माण का काम सौंपा था।

शुरुआत में जो सही मायने में माइग्रेशन हुआ, उसमें लोगों की संख्या बहुत कम थी। 5000 से थोड़े अधिक लोग माइग्रेट हुए थे। उसमें ज्यादातर ऐसे पुरुषों थे जो वहां सिर्फ रोजगार की तलाश में गए थे। वो वहां बसने का इरादा नहीं रखते थे। मेल्विन एम्बर, कैरोल आर एम्बर और इयान स्कोगार्ड द्वारा संपादित ‘Encyclopedia of Diasporas: Immigrant and Refugee Cultures Around the World’ के अनुसार, “उन्हें तीन से पांच साल से अधिक नहीं रहना था। वह जितना संभव हो सके अपनी बचत का अधिक हिस्सा घर भेजना चाहते थे।”

जब कनाडा ने सिखों से भरा जहाज भारत लौटा दिया

कनाडा में भारतीय प्रवासियों को आसानी से काम मिल गया। लेकिन उन्हें इस धारणा के आधार पर शत्रुता का सामना करना पड़ा कि वे वहां के मूल निवासियों से नौकरियां छीन रहे हैं। इतना ही नहीं, सिखों को नस्लीय और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों का भी सामना करना पड़ा। देश में अधिक से अधिक सिखों के आने से स्थिति बिगड़ती गई।

लोगों की बढ़ती आबादी को ध्यान में रखते हुए कनाडाई सरकार ने अंततः कड़े नियम लागू कर प्रवासन को समाप्त कर दिया। नलिनी कांत झा ने अपने एक लेख में बताया है, “एशियाई प्रवासियों के लिए 200 डॉलर की राशि अपने मूल देश से कनाडा आने के लिए अनिवार्य कर दिया गया। यह एक बड़ी रकम थी।”

‘द इंडियन डायस्पोरा इन कनाडा: लुकिंग बैक एंड अहेड’ (इंडिया क्वार्टरली, जनवरी-मार्च, 2005, खंड 61) में नलिनी कांत झा आगे लिखती हैं, “परिणामस्वरूप 1908 के बाद भारत से कनाडा आने वाले प्रवासियों की संख्या में भारी गिरावट आई। 1907-08 के दौरान 2,500 से घटकर प्रति वर्ष केवल कुछ दर्जन रह गई।”

इसी दौरान कोमागाटा मारू घटना घटी। 1914 में एक जापानी स्टीमशिप, जिसे कोमागाटा मारू के नाम से जाना जाता था, वैंकूवर के तट पर पहुंचा। इसमें 376 दक्षिण एशियाई यात्री सवार थे, जिनमें से अधिकांश सिख थे। आप्रवासियों को लगभग दो महीने तक जहाज पर हिरासत में रखा गया और फिर कनाडाई जल क्षेत्र से बाहर निकालकर एशिया वापस भेज दिया गया।

कैनेडियन म्यूज़ियम ऑफ़ ह्यूमन राइट्स के अनुसार, एक बार जब जहाज भारत पहुंचा, तो ब्रिटिश अधिकारियों और यात्रियों के बीच विवाद शुरू हो गया। अधिकारियों को संदेह था कि यात्री क्रांतिकारी हैं और गड़बड़ी करने आए हैं। विवाद समाप्त होने तक “16 यात्रियों सहित 22 लोग मारे गए।”

फिर कनाडाई सरकार ने नीतियों में क्यों दी ढ़ील?

दूसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद कनाडा की इमिग्रेशन नीति में ढील दी गई। ऐसा तीन मुख्य कारणों से हुआ। झा के अनुसार, सबसे पहला तो यह कि संयुक्त राष्ट्र में शामिल होने के बाद कनाडा के लिए नस्लीय प्राथमिकताओं के आधार पर ऐसी नीति को बनाए रखना मुश्किल था।

दूसरा, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कनाडा ने अपनी अर्थव्यवस्था का विस्तार करना शुरू कर दिया जिसके लिए उसे मजदूरों की आवश्यकता थी। तीसरा, “यूरोप से लोगों के आप्रवासन में गिरावट आई। ऐसे में कनाडाई सरकार ने ‘ह्यूमन रिसोर्स के आयात’ के लिए तीसरी दुनिया के देशों की ओर रुख किया।” तीसरा तर्क अमृतसर स्थित गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग के प्रोफेसर और प्रमुख परमजीत एस खा है। उन्होंने 2003 के एक लेख यह बात बताई थी। लेख का शीर्षक Social Construction of Identity in a Multicultural State: Sikhs in Canadaथा, जो इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली पत्रिका में प्रकाशित हुआ था।

इन कारकों से अंततः 1967 में कनाडाई सरकार ने ‘अंक प्रणाली’ की शुरुआत की, जिसने देश में गैर-आश्रित रिश्तेदारों के प्रवेश के लिए केवल कौशल को मानदंड बनाया और एक विशेष जाति को दी गई किसी भी प्राथमिकता को समाप्त कर दिया।