बचपन से ही अटल बिहारी वाजपेयी के सिंधिया परिवार के साथ अच्छे संबंध रहे थे। ग्वालियर के अंतिम शासक जीवाजीराव सिंधिया व्यक्तिगत रूप से उनके बहुत प्रशंसक थे। वाजपेयी का जन्म ग्वालियर में ही हुआ था।

साल 1967 में विजयाराजे सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने बाद वाजपेयी ही उन्हें भाजपा (तब जनसंघ) में लेकर आए थे। सिंधिया परिवार के इतिहास को संजोने वाली वेबसाइट ‘जयविलास पैलेस’ की मानें तो विजयाराजे सिंधिया के कांग्रेस छोड़ने पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी उनसे मिलने के लिए ग्वालियर के पाटनकर बाजार से जय विलास पैलेस तक नंगे पैर गए थे।

बता दें कि उन दिनों विजयाराजे सिंधिया दक्षिणपंथी राजनीतिक दल ‘जनसंघ’ की महत्वपूर्ण स्तंभों में से एक थीं, क्योंकि तब पार्टी के पास संसाधन बहुत कम हुआ करते थे। बाद में वह भाजपा की फाउंडिंग मेंबर भी बनीं।

जब वाजपेयी के खिलाफ खड़े हुए माधवराव सिंधिया

वाजपेयी मूलरूप से मध्य प्रदेश के निवासी थे। फिर भी उन्होंने उत्तर प्रदेश को अपना राजनीतिक क्षेत्र चुना। उन्होंने अपना पहला लोकसभा चुनाव 1957 में बलरामपुर से लड़ा। वह 10 बार लोकसभा के सदस्य रहे, लेकिन उन्होंने 1971 से 1977 के बीच केवल एक बार ग्वालियर लोकसभा का प्रतिनिधित्व किया। 1991 में उन्होंने फिर से मध्य प्रदेश के विदिशा लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा, लेकिन लखनऊ के लिए वह सीट छोड़ दी।

उन्होंने विदिशा की बागडोर मध्य प्रदेश के वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को सौंप दी, जो भाजपा में ‘वाजपेयी शैली की राजनीति’ के उत्तराधिकारी माने जाते हैं। भाजपा की राजनीति में चौहान के उदय का श्रेय वाजपेयी के विदिशा सीट खाली करने के फैसले को दिया जाता है। 2005 में एमपी का मुख्यमंत्री बनने से पहले चौहान ने लगातार पांच बार विदिशा का प्रतिनिधित्व किया।

1984 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद भाजपा संसद में दो सीटों पर सिमट गई, तो वाजपेयी ने ग्वालियर से चुनाव लड़ने का फैसला किया। अंतिम समय में माधवराव सिंधिया ने गुना से अपनी सीट बदल ली और ग्वालियर से उम्मीदवार बन गये। वाजपेयी इस बात से अचंभित थे क्योंकि वह कभी भी सिंधिया परिवार से किसी के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे।

उस चुनाव में वाजपेयी ने ग्वालियर के महाराजा रहे माधवराव सिंधिया (विजयाराजे सिंधिया के बेटे) के खिलाफ शानदार ढंग से चुनाव लड़ा। खुद विजयाराजे सिंधिया ने अपने बेटे के खिलाफ और वाजपेयी के समर्थन में चुनाव प्रचार किया। हालांकि पूरे चुनाव प्रचार के दौरान वाजपेयी ने एक भी शब्द ऐसा नहीं कहा जो सिंधिया परिवार के लिए अपमानजनक हो। वाजपेयी बड़े अंतर से चुनाव हार गए।

सिंधिया परिवार का सहयोग

‘न दैन्यं, न पलायनम्’ नामक अपनी पुस्तक में वाजपेयी ने लिखा  कि 1945 में उनकी उच्च शिक्षा संभव नहीं होती अगर सिंधिया परिवार उनके सहयोग के लिए आगे नहीं आता। उन्होंने लिखा, “ग्वालियर के महाराजा जीवाजीराव सिंधिया मुझे मेरे स्कूल के दिनों से जानते थे। जब मेरी उच्च शिक्षा का सवाल परिवार के सर मंडरा रहा था, जो पहले से ही मेरी दो बहनों की शादी के बोझ से दबा था और पिता की सेवानिवृत्ति के कारण सीमित संसाधन थे, तो शाही परिवार ने मेरे लिए 75 रुपये की मासिक छात्रवृत्ति स्वीकृत की।”

उस छात्रवृत्ति की सहायता से ही वाजपेयी अपनी कानून की शिक्षा के लिए डीएवी कॉलेज, कानपुर गए। यह वाजपेयी के लिए एक बड़ा अवसर बन गया। वहीं वह आर्य समाज के संपर्क में आये और बाद में आरएसएस से जुड़ गये। वाजपेयी की कानपुर यात्रा ने उन्हें कई दक्षिणपंथी नेताओं के करीब ला दिया और बाद में वह राष्ट्र धर्म के संपादक बने जहां उन्होंने भाजपा (तत्कालीन जनसंघ) के विचारक दीनदयाल उपाध्याय के साथ मिलकर काम किया। राष्ट्र धर्म के बाद उन्हें आरएसएस के मुखपत्र पांचजन्य का संपादक बनाया गया। 1952 में जब श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की स्थापना की थी, तब वाजपेयी पार्टी के महासचिव दीनदयाल उपाध्याय से जुड़े थे।