सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में ऐतिहासिक फैसले में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षण के अंदर आरक्षण देने की इजाजत दी। इसके साथ ही जस्टिस बी.आर. गवई ने अपना मत देते हुए कहा कि सरकारों को एससी-एसटी के अंदर क्रीमी लेयर की पहचान करने का भी तरीका निकालना चाहिए। हालांकि, उन्होंने इस निर्धारण के लिए कोई स्पष्ट मानदंड नहीं दिया।
इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को पश्चिम बंगाल सरकार से उस प्रक्रिया के बारे में बताने को कहा जो उन्होंने 77 समुदायों (जिनमें ज्यादातर मुस्लिम थे) को अन्य पिछड़ा वर्ग के रूप में वर्गीकृत करने, उन्हें आरक्षण लाभ के लिए पात्र बनाने के लिए अपनाई थी।
अदालत ने राज्य से यह भी पूछा कि क्या इसमें शामिल समुदायों के पिछड़ेपन को दिखाने के लिए कोई क्वांटिटेटिव डेटा है? सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने पश्चिम बंगाल से यह भी जानना चाहा कि क्या राज्य ने ओबीसी के सब-क्लासिफिकेशन के लिए कोई सलाह ली है।
पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा 2010 के बाद जारी किए गए ओबीसी प्रमाणपत्रों को रद्द करने का आदेश
सुप्रीम कोर्ट पश्चिम बंगाल सरकार की अपील पर सुनवाई कर रहा था, जिसमें 2010 के बाद से जारी किए गए सभी ओबीसी प्रमाणपत्रों को रद्द करने के कलकत्ता हाई कोर्ट के 22 मई के आदेश को चुनौती दी गई थी। हाई कोर्ट ने माना था कि 77 समुदायों को ओबीसी का दर्जा देने के लिए वास्तव में धर्म ही एकमात्र मानदंड प्रतीत होता है।

77 समुदायों को ओबीसी के रूप में वर्गीकृत करने के लिए अपनाई गई प्रक्रिया को समझाया जाए
वादियों को नोटिस जारी करते हुए सुप्रीम कोर्ट की पीठ जिसमें जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा भी शामिल थे, ने राज्य को एक हलफनामा दायर करने के लिए कहा जिसमें 77 समुदायों को ओबीसी के रूप में वर्गीकृत करने के लिए अपनाई गई प्रक्रिया को समझाया जाए। साथ ही यह भी बताया जाये कि क्या सर्वे की प्रकृति और क्या ओबीसी के रूप में नामित 77 समुदायों की सूची में किसी भी समुदाय के संबंध में आयोग (राज्य पिछड़ा पैनल) के साथ परामर्श की कमी थी?
राज्य की ओर से पेश वरिष्ठ वकील इंदिरा जयसिंह ने कहा कि हाई कोर्ट ने माना था कि यह पिछड़ा वर्ग आयोग का विशेषाधिकार है न कि सरकार का। जयसिंह ने कहा, प्रक्रिया यह है कि आयोग पहले डेटा के आधार पर पहचान करता है कि ओबीसी कौन से हैं और फिर राज्य अपना काम करता है। वहीं, याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ वकील मुकुल रोहतगी और पीएस पटवालिया ने ओबीसी सूची में समुदायों को शामिल करने के लिए किए गए किसी भी सर्वे में कमी की ओर इशारा किया।
कलकत्ता हाई कोर्ट ने बंगाल में ओबीसी सर्टिफिकेट क्यों रद्द किए?
मई 2024 में, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने 2010 के बाद पश्चिम बंगाल सरकार द्वारा जारी किए गए सभी ओबीसी सर्टिफिकेट को रद्द कर दिया था। इस फैसले का सीधा असर 2011 से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के प्रशासन के तहत जारी किए गए प्रमाणपत्रों पर पड़ा। कलकत्ता उच्च न्यायालय ने कहा कि राज्य सरकार ने 2010 के बाद ओबीसी प्रमाणपत्र जारी करते समय उचित कानूनी प्रक्रियाओं का पालन नहीं किया था।

इस फैसले से लगभग पांच लाख ओबीसी प्रमाणपत्र अमान्य हो गए। हालांकि, जो लोग पहले से ही कार्यरत हैं या ओबीसी आरक्षण से लाभ उठा रहे हैं वे अप्रभावित रहेंगे लेकिन अमान्य प्रमाणपत्रों का उपयोग भविष्य में सरकारी नौकरी के आवेदन या अन्य लाभों के लिए नहीं किया जा सकता है।
ओबीसी आरक्षण प्रक्रिया में कमी
हाई कोर्ट ने माना कि पश्चिम बंगाल में ओबीसी के वर्गीकरण और आरक्षण प्रक्रिया में कानूनी और प्रक्रियात्मक कमियां थीं। अदालत ने पाया कि विभिन्न कार्यकारी आदेशों और ज्ञापनों के माध्यम से ओबीसी का वर्गीकरण और उप-वर्गीकरण अवैध था। 2010 और 2012 के बीच 77 वर्गों को जोड़ना और पश्चिम बंगाल पिछड़ा वर्ग (एससी और एसटी के अलावा) (पदों में आरक्षण) अधिनियम 2012 के तहत उनका सब-क्लासिफिकेशन कानूनी रूप से सही नहीं था।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 16(4) राज्य को राज्य सेवाओं में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व वाले किसी भी पिछड़े वर्ग के नागरिकों के लिए नियुक्तियाँ या पद आरक्षित करने की अनुमति देता है। हालाँकि, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि पश्चिम बंगाल सरकार ने इस संवैधानिक प्रावधान का उल्लंघन किया है। क्लासिफिकेशन और सब-क्लासिफिकेशन सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन के वैलिड और कानूनी रूप से सही मूल्यांकन पर आधारित नहीं थे।
SC-ST आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एससी और एसटी के लिए कोटे के अंदर कोटा देने की व्यवस्था दी गई। सात-न्यायाधीशों की पीठ ने छह-एक के बहुमत से फैसला दिया कि राज्यों को संवैधानिक रूप से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के अंदर सब-क्लासिफिकेशन करने का अधिकार है, ताकि आरक्षण के जरिए उस जाती-समूह के ज्यादा से जायदा लोगों के उत्थान में मदद मिल सके। हालांकि, जस्टिस बेला त्रिवेदी एससी-एसटी के अंदर नए सिरे से जातीय समूह निर्धारित करने का अधिकार राज्यों को देने के पक्ष में नहीं थीं।
सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने ई वी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में शीर्ष अदालत के 2004 के फैसले को पलट दिया जिसमें कोर्ट ने माना था कि एससी/एसटी में शामिल जातियों की सूची में बदलाव नहीं किया जा सकता। अदालत के इस फैसले से पहली बार एससी-एसटी को दिए जाने वाले आरक्षण के तरीकों में बदलाव किया गया है।
(Input- The Indian Express)