देश की राजनीति अंदर ही अंदर करवट बदल रही है। उत्तर प्रदेश में सत्ता बचाने की रणनीति, कर्नाटक में भाजपा की गुटबाजी, झारखंड में संभावित नए गठबंधन और बिहार में तेजस्वी यादव की भूमिका पर उठते सवाल – सब मिलकर सियासी अस्थिरता की तस्वीर पेश कर रहे हैं।
सत्ता की ‘त्रिवेणी’
बिहार में बंपर सफलता पाने के बाद भाजपा की चिंता 2027 में उत्तरप्रदेश में सत्ता पर कब्जा कायम रखने की है। आरएसएस इसमें सक्रिय भूमिका निभा रहा है। इस हफ्ते लखनऊ में सियासी सरगर्मी तेज दिखी। आरएसएस के दफ्तर भारती भवन में आरएसएस और भाजपा के शिखर नेतृत्व के बीच दो दिन मंथन हुआ। इसमें भाजपा से बीएल संतोष और आरएसएस से दत्तात्रेय होसबाले व अरुण कुमार थे। प्रदेश भाजपा से अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी, महामंत्री धर्मपाल और कुछ अन्य प्रचारक थे। सरकार की तरफ से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एवं दोनों उपमुख्यमंत्री केशव मौर्या और बृजेश पाठक ने शिरकत की। घोषित एजंडा बेशक आरएसएस के शताब्दी वर्ष मे लखनऊ में विराट हिंदू सम्मेलन का आयोजन हो पर असल ध्येय अलग था। एक तो सरकार और संगठन के काम की समीक्षा दूसरा पीडीए से मुकाबला। बिहार के नतीजों के बाद उत्तर प्रदेश में सपा भी पीडीए को लेकर सशंकित हो चुकी है। भाजपा चाहती है कि इस मुद्दे पर वह अपने हाथ मजबूत कर ले। आरएसएस चाहता है कि वह, भाजपा और सरकार मिलकर त्रिवेणी की तरह काम करे। लोकसभा चुनाव में भाजपा सूबे में 62 से घटकर 33 पर आ गई थी। विधानसभा में उसका मकसद सूबे में जीत की ‘हैट्रिक’ लगाना है क्योंकि उत्तर प्रदेश हाथ से निकल गया तो दूरगामी नुकसान का खतरा है।
बेफिक्र येदियुरप्पा
कर्नाटक में अब भाजपा गुटबाजी की शिकार है। असंतोष प्रदेश अध्यक्ष बीवाई विजयेंद्र को लेकर है, जो पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के बेटे व पहली बार के विधायक हैं। भाजपा ने येदियुरप्पा को खुश करने के चक्कर में वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी कर विजयेंद्र को पार्टी की कमान सौंपी थी। येदियुरप्पा विरोधी खेमे का आरोप है कि पार्टी ने भ्रष्टाचार और वंशवाद को बढ़ावा दिया है। येदियुरप्पा के दूसरे बेटे सांसद हैं। विजयेंद्र को हटाने की मांग को लेकर पार्टी के कई बड़े नेता और विधायक दिल्ली मे डेरा डाले हैं। इनमें रमेश जरकीहोली, कुमार बंगरप्पा, बीपी हरीश, श्रीमंत पाटिल और एनएस संतोष मुख्य हैं। ये नेता विजयेंद्र हटाओ, पार्टी बचाओ की गुहार लगा रहे हैं। उधर येदियुरप्पा खेमा बेफिक्र है। जो मानता है कि लिंगायत समाज के सबसे कद्दावर नेता होने के कारण पार्टी येदियुरप्पा की नाराजगी का जोखिम नहीं ले सकती।
नेताजी लग गए बातों में!
संसद सत्र में शून्यकाल के दौरान सभी नेताओं को अपने संसदीय क्षेत्र से जुड़े सवाल करने या जरूरी मुद्दे उठाने का मौका मिलता है। लंबे समय के बाद ऐसा माहौल बना था कि संसद सत्र शांतिपूर्वक चल रहा था। हालांकि इस शांत माहौल में भी एक सांसद को अपना नाम नहीं सुनाई दिया। शून्यकाल में समाजवादी पार्टी के एक सांसद का नंबर आया और लोकसभा अध्यक्ष ने सांसद का नाम भी पुकारा। लेकिन नाम पुकारने के बाद भी सांसद ने अपना शून्यकाल शुरू नहीं किया। इस पर लोकसभा अध्यक्ष ने सांसद से चुटकी ली। लोकसभा अध्यक्ष ने कहा कि बातों में लगे होंगे। तभी नाम पुकारने पर भी नाम नहीं सुनाई दिया। चलिए अब अपना शून्यकाल पटल पर रखिए।
लाभ की बात
भाजपा और झामुमो के करीब आने की चर्चा अचानक तेज हो गई है। बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान तो इसके कई प्रमाण भी दिखे थे। अभी झामुमो यूपीए में है। झारखंड की सरकार भी साझा सरकार है। राजनीति में न कोई स्थायी दोस्त होता है और न स्थायी दुश्मन। पर पहेली यह है कि भाजपा को झामुमो से क्या लाभ होगा? जानकार मानते हैं कि भाजपा झारखंड में अपनी सरकार न बनने से दुखी है। ऊपर से सूबे के आदिवासी उससे नाराज हैं। उन्हें लगता है कि भाजपा की केंद्र सरकार ने हेमंत सोरेन को परेशान करने के लिए जेल भेजा। भाजपा को लगता है कि झामुमो के साथ आने से आदिवासी समाज का उसके प्रति पूर्वाग्रह खत्म हो जाएगा। भाजपा की दूसरी चिंता सूबे में विपक्ष का गठबंधन प्रभावी होना है। दो बार से यह गठबंधन सत्ता पर काबिज है। अपनी जड़ जमाने के लिए इसे तोड़ना जरूरी है। रही झामुमो की गरज तो दोहरा लाभ होगा। एक, हेमंत सोरेन पर लटकी केंद्रीय एजंसियों की तलवार हट जाएगी। दूसरा, केंद्र से आर्थिक पैकेज ज्यादा मिल जाएगा। ‘मैय्या सम्मान योजना’ पर ही राज्य का 20 फीसद पैसा खर्च हो रहा है। डबल इंजन सरकार होगी तो और कुछ नहीं तो केंद्र से कम से कम सेस का पैसा तो मिल ही जाएगा। हालांकि एक नजरिया यह भी है कि इलाके में भाजपा मजबूत हुई तो सबसे बड़ा खतरा झामुमो के अस्तित्व पर ही आएगा। लेकिन राजनीति में सबसे अहम है तात्कालिक फायदा, जिसे झामुमो चुन सकती है।
निशाने पर तेजस्वी
तेजस्वी यादव की क्षमता पर चौतरफा सवाल उठ रहे हैं। भाजपा और जद (एकी) के नेता तो उन्हें अयोग्य साबित करने पर तुले ही हैं, लेकिन अब राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी ने भी तेजस्वी की कार्यशैली की आलोचना कर डाली। कारण है, 18वीं विधानसभा के पहले ही सत्र से तेजस्वी का नदारद होना। माना कि करारी हार ने उनका मनोबल तोड़ा है पर नेता प्रतिपक्ष की अपनी अहम भूमिका से वे किनारा तो नहीं कर सकते। सत्र के तीसरे और चौथे दिन तेजस्वी सदन में नजर नहीं आए। वे सरकार के शपथ ग्रहण और विधानसभा अध्यक्ष के चुनाव के अवसर पर जरूर मौजूद थे। चर्चा है कि वे परिवार के साथ छुट्टी मनाने 20 दिन के दौरे पर यूरोप चले गए हैं। सदन में राजग ने उनकी अनुपस्थिति को दायित्व की अनदेखी बताया तो राजद नेताओं ने सफाई दी कि उनका हर सिपाही सदन में है और सरकार को घेरने के लिए काफी है। राजग तो तंज कस ही रहा था कि शिवानंद तिवारी ने फरमाया कि बिहार में विरोध की राजनीति का पूरा मैदान खाली है जिसे तेजस्वी ने छोड़ दिया है। अगले पांच साल तक नेता प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने की क्षमता उनमें नहीं है।
