निर्भय ठाकुर
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले हफ्ते चुनावी बॉन्ड की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया। सत्तारूढ़ भाजपा का दावा है चुनावी बॉन्ड से राजनीति दलों की फंडिंग में पारदर्शिता आयी है। वही विपक्षी दलों का कहना है कि इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम सिर्फ सत्तारूढ़ पार्टी के लिए पारदर्शी है, बाकी सभी के लिए अपारदर्शी।
उपलब्ध आंकड़ों से यह स्पष्ट है कि 2017 से 2022 तक चुनावी बॉन्ड से राजनीतिक दलों को कुल जितना चंदा मिला है, उसका 57 प्रतिशत यानी 5,200 करोड़ रुपये अकेले भाजपा को मिला है। वहीं कांग्रेस को मात्र 10 प्रतिशत यानी 950 करोड़ रुपये मिले हैं।
पॉलिटिकल फंडिंग और चुनावी नतीजों के बीच संबंध
सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (CMS) ने अपने एक अध्ययन में 2019 के लोकसभा चुनावों को “अब तक का सबसे महंगा चुनाव” बताया है। CMS का अनुमान है पिछले चुनाव में लगभग 55 से 60,000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे, जिसमें से लगभग 45% भाजपा द्वारा खर्च किये गये थे। 2014 के आम चुनाव में भी पैसों ने अहम भूमिका निभाई थी। चुनाव में भाग लेने वाले उम्मीदवारों की औसत संपत्ति 23.8 लाख रुपये थी, जो उस वर्ष भारत के प्रति व्यक्ति आय से लगभग 27 गुना अधिक थी।
कई आधुनिक शोध पत्र चुनावी फंडिंग और चुनावी परिणामों के बीच संबंध की संभावनाओं पर विचार कर चुके हैं। भारतीय चुनावों में पैसा मायने रखता है। सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के वरिष्ठ फेलो नीलांजन सरकार ने इस बात पर चर्चा की है कि आखिर पार्टियां अमीर उम्मीदवारों पर क्यों निर्भर रहती हैं?
नीलांजन सरकार लिखते हैं कि प्रतिस्पर्धी पार्टियों (Competitive Parties) के उम्मीदवार, गैर-प्रतिस्पर्धी दलों (Non-Competitive Parties) के उम्मीदवारों की तुलना में लगभग 20 गुना अधिक अमीर थे।
सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के वरिष्ठ फेलो ने धन और चुनाव जीतने के बीच संबंध साबित करने के लिए विश्लेषण को प्रतिस्पर्धी दलों के उम्मीदवारों तक सीमित रखा और पाया कि शीर्ष दो उम्मीदवारों में से, जो सबसे अमीर था, उसकी संपत्ति अन्य उम्मीदवारों की तुलना में औसतन चार गुना अधिक थी। उन्होंने पाया कि अधिकतर मामलों में अमीर उम्मीदवार के जीतने की संभावना लगभग 10 प्रतिशत तक अधिक थी।
नीलांजन सरकार निष्कर्ष निकालाते हैं, “कुल मिलाकर ये विश्लेषण सांख्यिकीय साक्ष्य प्रदान करते हैं कि प्रतिस्पर्धी पार्टियां अमीर उम्मीदवारों को मैदान में उतारने की अधिक संभावना रखती हैं। यहां तक कि जब केवल उन उम्मीदवारों पर ध्यान केंद्रित किया जाता है जिनके जीतने की कुछ संभावना होती है, तो धन का चुनावी सफलता से गहरा संबंध साबित हो जाता है।”
भारत के बाहर किए गए अध्ययन भी चुनावी फंडिंग और चुनाव परिणामों के बीच संबंध दिखाते हैं।
राजनीतिक वैज्ञानिक थॉमस फर्ग्यूसन ने अपने रिसर्च ‘हाउ मनी ड्राइव्स यूएस कांग्रेसनल इलेक्शन: लीनियर मॉडल्स ऑफ मनी एंड आउटकम्स’ में दिखाया है कि 1980 से 2018 तक अमेरिकी सीनेट और प्रतिनिधि सभा के चुनावों में प्रमुख दलों के लिए पैसे और वोटों के बीच संबंध है।
सीएच वांग द्वारा किया गया एक हालिया अध्ययन, जिसमें 2008 से 2016 तक ताइवान के विभिन्न विधायी चुनावों में राजनीतिक दान और चुनाव परिणामों के बीच संबंधों का अध्ययन किया गया था, ने सबूत दिया कि राजनीतिक चंदा महत्वपूर्ण रूप से चुनाव परिणामों के साथ जुड़े हैं।
चुनावी बांड पर सुप्रीम कोर्ट, ECI और RBI ने क्या कहा?
सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बांड मामले की इस बात पर ध्यान दिया कि सत्तारूढ़ दल दानदाताओं की पहचान कर सकती है, लेकिन विपक्ष नहीं कर सकता। अतीत में भारतीय रिजर्व बैंक और भारतीय चुनाव आयोग (ईसीआई) दोनों ने चुनावी बॉन्ड योजना पर आपत्ति जताई थी। ईसीआई ने कानून और न्याय मंत्रालय को लिखे एक पत्र में चेतावनी दी है कि चुनावी बांड राजनीतिक सिस्टम में काले धन को लाने के लिए शेल कंपनियों के प्रसार को बढ़ावा दे सकते हैं। हालांकि बाद में (2021 में) ECI ने चुनावी बांड का समर्थन किया।
ऐसे संशोधन जो चुनावी नतीजों में राजनीतिक फंडिंग की भूमिका बढ़ा सकते हैं
चुनावी बांड योजना को लाने के लिए कई कानूनों में संशोधन किया गया था, जैसे भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, कंपनी अधिनियम, आयकर अधिनियम 1961, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम और विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम।
जैसा कि पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई क़ुरैशी ने द इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है, “पहले कोई कंपनी अपने लाभ का 7.5 प्रतिशत तक दान कर सकती थी। लेकिन अब कोई कंपनी अपने मुनाफे का 100 प्रतिशत भी किसी राजनीतिक दल को दान कर सकती है। दूसरा, यह शर्त भी खत्म कर दी गई कि किसी कंपनी के तीन साल के मुनाफे को देखा जाएगा। अब घाटे में चल रही कंपनियां भी राजनीतिक चंदा दे सकती हैं।”
