बिहार में जाति जनगणना के आंकड़े जारी होने के बाद से यह देश भर में चर्चा का विषय बना हुआ है। जाति जनगणना पर केंद्रीय मंत्री और रिपब्लिक पार्टी ऑफ इंडिया – आठवले (RPI-A) के मुखिया रामदास आठवले की राय, भाजपा से अलग है। वह चाहते हैं कि जाति जनगणना हो और उसके तहत सिर्फ अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) को न गिना जाए, बल्कि सभी जातियों को गिना जाए।सामाजिक न्याय व अधिकारिता राज्यमंत्री रामदास आठवले ने जनसत्ता डॉट कॉम के संपादक विजय कुमार झा के एक सवाल के जवाब में यह बात कही। आठवले जनसत्ता.कॉम के कार्यक्रम ‘बेबाक’ में मेहमान थे।
केंद्र सरकार के सामने जाति जनगणना को लेकर क्या चुनौती है, इसे समझाते हुए आठवले कहते हैं, “हमने संविधान और कानून के माध्यम से जाति व्यवस्था को खत्म किया है। ऐसे में जाति के आधार पर जनगणना कैसे कर सकते हैं? ये सरकार के सामने टेक्निकल इश्यू है। फिर भी मेरा मानना है कि सभी जातियों की गिनती हो जानी चाहिए। ताकि यह पता चल जाए कि किसकी कितनी संख्या है। अभी जनगणना में सिर्फ दलितों और आदिवासियों की ही गिनती होती है। भारत सरकार को सभी जातियों की गिनती करनी चाहिए। मेरा विश्वास है कि भविष्य में इस विषय पर पीएम मोदी विचार करेंगे।”
बता दें कि केंद्र में सत्तारूढ़ गठबंधन एनडीए की सबसे बड़ी पार्टी जाति जनगणना के मुद्दे पर असमंजस में लगती है। पार्टी जहां खुल कर इसका विरोध भी नहीं कर रही, वहीं जब बिहार सरकार ने राज्य में सभी जातियों की संख्या सार्वजनिक की तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे हिंंदुओं को बांटने वाला कदम बताया।
जाति जनगणना से क्या फायदा होगा?
रामदास आठवले जाति जनगणना की मांग तो करते हैं। लेकिन खुद ही यह बात भी कहते हैं कि जाति जनगणना का कोई लाभ नहीं है। जनसत्ता डॉट कॉम के संपादक विजय कुमार झा ने जब आठवले से पूछा कि जाति जनगणना से क्या फायदा होगा? तो उन्होंने जवाब दिया, “सभी की मांग है कि जाति जनगणना होनी चाहिए, इसलिए होनी चाहिए। इसका सिर्फ इतना ही फायदा है कि किस जाति के कितने लोग है, ये पता चल जाएगा। बस आंकड़े मिल जाएंगे, इसके अलावा जाति जनगणना का कोई विशेष फायदा नहीं है।”
“जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” पर क्या बोले आठवले?
आबादी के अनुपात में आरक्षण के सवाल पर रामदास आठवले ने उदाहरण देकर जवाब दिया। उन्होंने कहा, “26 जनवरी, 1950 को जब संविधान लागू हुआ तो दलितों की आबादी 15% और आदिवासियों की संख्या 7.5% थी। इसलिए दलितों को 15% और आदिवासियों को 7.5% यानी कुल 22.5% आरक्षण मिला था। 2011 की जनगणना के मुताबिक, दलित 16.6% और 8.4% यानी कुल 25% हो गए हैं। लेकिन हम 25% आरक्षण की मांग नहीं कर रहे हैं।” हालांकि इसके बावजूद आठवले आबादी के अनुपात में आरक्षण का विरोध नहीं करते हैं। उनका मानना है कि अगर ऐसा होता है, तो ठीक ही होगा। बता दें कि हाल में राहुल गांधी और कांग्रेस “जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी” की वकालत करते रहे हैं। बीजेपी इसका भी विरोध कर रही है।
क्या आरक्षण से असमानता कम हुई है?
आठवले की राय है कि आरक्षण की वजह से दलित और आदिवासी समाज के बच्चे अफसर बन पा रहे हैं, विदेशों में पढ़ाई करने जा रहे हैं, अलग-अलग क्षेत्रों में आगे आ रहे हैं। वह कहते हैं, “हमारे समाज को आरक्षण से फायदा हुआ है।”
आठवले चाहते हैं कि जिस तरह चुनावों में दलित और आदिवासी समुदाय के लिए सीटें आरक्षित की जाती हैं। उसी तरह की व्यवस्था ओबीसी के लिए भी की जानी चाहिए। यानी केंद्रीय मंत्री पिछड़ा वर्ग के लिए पॉलिटिकल रिजर्वेशन की मांग कर रहे हैं।
अवसर की समानता या आरक्षण?
जनसत्ता डॉट कॉम के संपादक का केंद्रीय मंत्री से अगला सवाल था कि अवसर की समानता लाने पर अधिक जोर देना चाहिए या आरक्षण देने पर? आठवले ने कहा, “मुझे लगता है कि एससी-एसटी के आरक्षण को बिलकुल भी धक्का नहीं लगना चाहिए। बाकि आरक्षण तो सभी वर्गों को मिल ही रहा है। जहां तक मेरिट की बात है तो MBBS में एडमिशन के लिए अगर जनरल कैटेगरी को 95% अंक लाना होता है, तो एससी वर्ग के स्टूडेंट्स को 91-92 प्रतिशत अंक लाना होता है। अगर झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले दलित समुदाय का बच्चा तमाम बुनियादी सुविधाओं के बिना अगर 91-92 प्रतिशत अंक लाता है, तो यह कहना कि उनके भीतर मेरिट नहीं है। यह ठीक नहीं है।” उन्होंने कहा कि एससी-एसटी को मिल रहा आरक्षण एकदम कम नहीं होना चाहिए, उसके बाद बाकी वर्गों के लिए अगर समान अवसर पैदा कराने पर काम हो तो उसका विरोध नहीं है।