Independence Day: 15 अगस्त 1947 को पूरा देश जश्न नहीं मना रहा था। विभाजन (Partition of India) के दंश ने जिन नागरिकों को अपने ही मुल्क में शरणार्थी बना दिया था, वो गमगीन थे। जिनके अपने मार दिए गए या बिछड़ गए थे, जिनका घर, व्यापार और रोजगार छूट गया, वो खौफजदा थे। भविष्य की अनिश्चितताओं से व्याकुल लोगों के लिए आजादी त्रासदी लेकर आया था। स्वतंत्रता संग्राम के अगुवा गांधी (Mahatma Gandhi) टुकड़ों में मिली इस आजादी की पीड़ा को समझते थे, इसलिए वह स्वाधीनता के उत्सव से दूर कोलकाता में उपवास पर थे।
सीमावर्ती इलाकों में मार-काट मची थी। आजादी और उसके आस-पास के वक्त को दर्ज करने वाली महत्वपूर्ण किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ (Freedom at Midnight) में 15 अगस्त 1947 की कई ह्रदय विदारक घटनाओं का जिक्र मिलता है। आजादी की रोज पंजाब का हाल बताते हुए किताब में लिखा है कि अमृतसर में सिख समुदाय के लोग मुस्लिम बस्तियों को तहस-नहस कर रहे थे। पुरुषों को बेरहमी से काट रहे थे और महिलाओं का बलात्कार कर रहे थे।
पाकिस्तान से आयी लाशों वाली ट्रेन
आजादी के दिन का तीसरा पहर बीता था। पाकिस्तान की तरफ से अमृतसर स्टेशन पर एक ट्रेन के पहुंचने का समय हो रहा था। स्टेशन मास्टर चनीसिंह हाथ में लाल झंडा लिए प्लेटफार्म पर पहुंच गए। प्लेटफॉर्म के एक सिरे पर खड़े चनीसिंह ने लाल झंडा दिखाया और ट्रेन रुक गई। स्टेशन मास्टर ट्रेन को बड़ी हैरत से देखते रहे क्योंकि सभी डिब्बों की खिड़कियां तो खुली थीं लेकिन उससे झांकता हुआ कोई सिर नजर नहीं आ रहा था। न ही अब तक कोई ट्रन से उतरा था। बस इंजन के पास लोको पायलट की सुरक्षा में चार हथियारबंद सिहापी खड़े थे।
मसला समझने के लिए चनीसिंह पहले डिब्बे का दरवाजा झटके से खोलते हुए अंदर दाखिल हुए, अब उन्हें समझ आ गया था कि 10 डाउन एक्सप्रेस ट्रेन से एक भी मुसाफिर क्यों नहीं उतरा। यह ट्रेन लाशों से भरी थी। ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ में ट्रेन के भीतर के दृश्य का वर्णन करते हुए लिखा है, ”डिब्बे के फर्श पर इंसानी जिस्मों का ढेर लगा हुआ था, किसी का गला कटा था, किसी की खोपड़ी चकनाचूर थी, किसी की आंतें बाहर निकल आयी थीं। आने-जाने के रास्ते में कटे हुए हाथ, टांग और धड़ इधर-उधर बिखरे हुए थे।”
‘आजादी का तोहफा’
चनीसिंह को लाशों के बीच कहीं-कहीं से सांस चलने की आवाज आ रही थी। उन्होंने जोर से आवाज लगायी: ”अमृतसर आ गया है। यहां सब हिन्दू और सिख हैं। पुलिस मौजूद है। डरो नहीं।” आश्वासन की इस आवाज पर भरोसा कर लाशों के बीच से एक औरत उठी और पास ही पड़े अपने पति के कटे हुए सिर को सीने से दबोचकर चीखें मार-मारकर रोने लगी। इसके बाद चनीसिंह ने बच्चों को अपनी मरी हुई मां से लिपटकर रोते देखा, मर्दों को लाशों के बीच से अपने बच्चों का शव ढूंढते देखा।
ये सब उनके लिए असहनीय होता जा रहा था। लेकिन उन्होंने आखिरी डिब्बे तक का मुआयना किया। जब वह प्लेटफॉर्म पर उतरे तो उनका सिर चकरा रहा था। हालांकि उन्होंने एक बार फिर कुछ ढूंढते हुए ट्रेन पर नजर फेरा, इस बार उन्हें हत्यारों का परिचय मिल गया। लाशों से भरे इस ट्रेन के आखिरी डिब्बे पर सफेद मोटे अक्षरों में लिखा था: ”यह पटेल और नेहरू को हमारी आजादी का तोहफा है।”