भारत अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ मना चुका है लेकिन भेदभाव से मुक्ति के लिए अब तक कोई तारीख तय नहीं हुई है। ऑक्सफैम इंडिया की ताजा रिपोर्ट बताती है मुल्क में आज भी धर्म, जाति और लिंग की वजह से लोग सताए जा रहे हैं। लोगों की कमाई तक धर्म, जाति और लिंग से तय हो रही है।

‘इंडिया डिस्क्रिमिनेशन रिपोर्ट 2022’ शीर्षक से प्रकाशित ऑक्सफैम इंडिया की नई रिपोर्ट में बताया गया है कि सामान्य वर्ग की तुलना में देश के दलित और आदिवासी हर महीने पांच हजार रुपये कम कमा रहे हैं। वहीं गैर-मुस्लिमों की तुलना में मुस्लिम हर माह सात हजार कम कमा रहे हैं। महिलाएं पुरुषों की तुलना में चार हजार रुपये कम कमा रही हैं।

ऑक्सफैम की इस रिपोर्ट को शोधकर्ताओं ने 16 साल के सरकारी आंकड़ों के विश्लेषण के बाद तैयार किया है। शोधकर्ताओं ने 2004 से 2020 के बीच अलग-अलग वर्ग की नौकरियों, उनका वेतन, स्वास्थ्य, कर्ज आदि का अध्ययन किया है।

दलित(Schedule Caste) और आदिवासी(Scheduled Tribes) की हालत

रिपोर्ट में आकस्मिक वेतन श्रमिकों को लेकर अलग से आंकड़ा दिया गया है। मोटे तौर पर दिहाड़ी मजदूरों को आकस्मिक वेतन श्रमिक कहा जाता है। रिपोर्ट में मौजूद आंकड़ों के मुताबिक, ऐसे दलित (Scheduled Castes) और आदिवासी (Scheduled Tribes) जो दिहाड़ी मजदूरी करते हैं, उनकी आय और गैर-दलित-आदिवासी दिहाड़ी मजदूरों की आय से कम है। कमाई में अंतर के लिए 79% भेदभाव जिम्मेदार है। यह पिछले साल की तुलना में 10 प्रतिशत ज्यादा है।  

घर के मुखिया की शिक्षा, उम्र और श्रमिक की शिक्षा जैसे कारक कमाई को प्रभावित करते हैं। रिपोर्ट में पाया गया है कि एससी और एसटी समुदायों के सदस्यों की शिक्षा का स्तर सामान्य वर्ग के समान होने के बावजूद उनकी कमाई कम रही है। ज्यादातर मामलों में भेदभाव के कारण वेतन में 41% का अंतर रहा है।

रिपोर्ट से पता चलता है कि शहर में काम करने वाले SC और ST समुदाय के नियमित कर्मचारी औसत 15,312 रुपये कमाते हैं। जबकि सामान्य वर्ग  के कर्मचारी 20,346 रुपये कमाते हैं। इस तरह SC-ST समुदाय के नियमित कर्मचारी भी सामान्य वर्ग की तुलना में 33 फीसदी कम कमा रहे हैं।

एससी और एसटी समुदायों के सेल्फ इम्पलॉयड (खुद का काम करने वाले) सदस्य भी गैर-एसी/एसटी की तुलना में 2,000 रुपये कम कमाते हैं। इस अंतर के लिए 78% जिम्मेदार भेदभाव को माना गया है। एससी/एसटी वर्ग के किसानों को कृषि लोन भी सामान्य वर्ग की तुलना में कम मिल रहा है।

मुसलमानों की हालत

कोविड-19 महामारी के दौरान सबसे अधिक बेरोजगार मुसलमान हुए हैं। कोविड-19 के पहले ही क्वाटर में मुसलमानों के बीच बेरोजगारी में 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। साल 2019-20 में 15 वर्ष और उससे अधिक आयु की शहरी मुस्लिम आबादी में से 15.6% के पास नियमित वेतनभोगी नौकरियां थीं। ठीक इसी वक्त गैर-मुसलमानों में 23.3% लोग नियमित वेतनभोगी नौकरी कर रहे थे। शहरी मुसलमानों को 68% मामलों में भेदभाव के कारण रोजगार कम मिला है।

कमाई की बात करें तो शहरी क्षेत्र में रेगुलर जॉब्स करने वाले गैर-मुस्लिम हर महीने 20,346 रुपये कमा रहे हैं। वही मुसलमान 13,672 रुपये ही कमा पा रहे हैं। इस तरह मुस्लिमों और गैर-मुस्लिमों के बीच कमाई में 1.5 गुना का अंतर है।

अपना रोजगार करने वाले यानी सेल्फ एंप्लॉयड मुस्लिम भी कमाई के मामले में गैर-मुस्लिम सेल्फ एंप्लॉयड से पिछड़े हुए हैं। जहां गैर-मुस्लिम महीने की औसतन 15,878 रुपये कमा रहे हैं। वही मुस्लिम 11,421 रुपये ही कमा पा रहे हैं।

महिलाओं की हालत

लिंग के संदर्भ में रिपोर्ट में कहा गया है कि पुरुष वेतन भोगी नियमित रोजगार से प्रतिमाह औसतन 19,779 रुपये कमाते हैं जबकि महिलाएं 15,578 रुपये कमाती हैं। इस अंतर मे भेदभाव का हिस्सा 67% है। लिंग आधारित भेदभाव पुरुषों और महिलाओं के बीच रोजगार के 98 प्रतिशत अंतर का कारण है।