भारत का संविधान बनाने वाली संविधान सभा में मूल रूप से कुल 389 सदस्यों में से 15 महिलाएं थीं। संविधान सभा की बहसें दर्शाती हैं कि कैसे इसकी महिला सदस्यों ने किसी भी प्रकार के आरक्षण का मुखर विरोध किया। संविधान निर्माताओं ने सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के राजनीतिक सशक्तिकरण के लिए सकारात्मक कार्रवाई की आवश्यकता पर बहस की थी लेकिन तब महिलाओं ने अपने लिए किसी तरह के आरक्षण की मांग नहीं की थी।
पत्रकार निधि शर्मा की नई किताब, ‘शी द लीडर: वीमेन इन इंडियन पॉलिटिक्स’ महिला राजनेताओं की अनकही कहानियां पेश करती है। किताब की शुरुआत में ही शर्मा ने संविधान सभा की एकमात्र दलित महिला सदस्य दाक्षायनी वेलायुदन का जिक्र है, जिन्होंने 28 अगस्त 1947 को अनुसूचित जाति समुदाय के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र के मुद्दे पर बहस करते हुए आरक्षण का विरोध किया था।
दाक्षायनी वेलायुदन ने कहा था, “व्यक्तिगत तौर पर कहूं तो मैं किसी भी स्थान पर किसी भी प्रकार के आरक्षण के पक्ष में नहीं हूं। दुर्भाग्यवश, हमें ये सब बातें स्वीकार करनी पड़ीं क्योंकि ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने हम पर कुछ निशान छोड़े हैं और हम हमेशा एक-दूसरे से डरते रहते हैं। इसलिए, हम पृथक निर्वाचन क्षेत्रों को खत्म नहीं कर सकते। सीटों का आरक्षण भी एक प्रकार का Separate Electorates ही है। लेकिन हमें इस बुराई को सहना होगा क्योंकि हम सोचते हैं कि यह एक आवश्यक बुराई है।”
कौन थीं दाक्षायनी वेलायुदन?
दक्षिणायनी वेलायुधन का जन्म 15 जुलाई 1912 को वर्तमान एर्नाकुलम जिले के एक छोटे से द्वीप मुलवुकड़ में हुआ था। वह पुलाया समुदाय से थीं, जिसे कठोर दमनकारी जाति व्यवस्था में सबसे अंतिम पायदान पर रखा गया था। पुलाया ज्यादातर कम वेतन वाले खेतिहर मजदूर थे। छुआछूत के कारण उनका सार्वजनिक सड़कों पर चलना मना था, उच्च जाति के व्यक्तियों से एक निश्चित दूरी बनाए रखना और महिलाओं को अपने शरीर के ऊपरी अंगों को किसी भी कपड़े से ढकने पर प्रतिबंध था। इस तरह कई अपमानों का उन्हें सामना करना पड़ता था।
1913 में कोच्चि में कयाल सम्मेलन का आयोजन किया गया था। इस सम्मेलन में शामिल होने के लिए वेलायुधन के परिवार के सदस्यों सहित सैकड़ों पुलाया एक साथ आए थे। लेकिन उन्हें जमीन पर नहीं उतरने दिया गया। सभी घटना ने वेलायुधन के जीनव पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला। उन्होंने एक लेखक से अनुरोध किया था कि उनके जीवनी का शीर्षक ‘The Sea has no Caste’ रखा जाए।
वेलायुधन ने सविनय अवज्ञा आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी निभा कर राजनीति में प्रवेश किया था। वह कांग्रेस की राजनीति की कड़ी के रूप में उभरीं। अखिल भारतीय अनुसूचित जाति महासंघ (AISCF) की साप्ताहिक पत्रिका ‘जय भीम’ में वह कांग्रेस के खिलाफ लिखा करती थीं। साथ ही, AISCF और डॉ. अंबेडकर की आलोचना से भी नहीं चूकती थीं। उन्होंने अम्बेडकर की राजनीति और विशेष रूप से अनुसूचित जातियों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों की उनकी मांग की कड़ी आलोचना की थी।
कांग्रेस और AISCF दोनों तरफ से उनपर अक्सर भयंकर Sexist हमले हुए। संविधान सभा में उनके नामांकन का विरोध करते हुए कांग्रेस आलाकमान को गंभीर याचिकाएं भेजी गईं। इसके बावजूद वह 1946 में निकाय के लिए चुनी गईं। 1945 में उन्हें कोचीन विधान परिषद के लिए भी नामांकित किया गया था।
‘हमें समानता चाहिए, आरक्षण नहीं’
19 दिसंबर 1946 को संविधान सभा में समानता के सिद्धांत को संविधान में शामिल करने पर चर्चा करते हुए हंसा मेहता ने कहा था, “इस सदन में महात्मा गांधी का नाम लिया गया है। यह भूल होगी यदि मैं महात्मा गांधी द्वारा भारतीय महिलाओं के किए गए कार्यों को स्वीकार न करूं। हमने कभी विशेषाधिकार नहीं मांगा। जिस महिला संगठन से जुड़ने का मुझे सम्मान मिला है, उसने कभी भी आरक्षित सीटों, कोटा या अलग निर्वाचन क्षेत्रों की मांग नहीं की है। हमने जो मांगा है वह सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय और राजनीतिक न्याय है। हमने उस समानता की मांग की है जो परस्पर सम्मान और समझ का आधार हो सकती है और जिसके बिना स्त्री और पुरुष के बीच वास्तविक सहयोग संभव नहीं है। महिलाएं इस देश की आबादी का आधा हिस्सा हैं और इसलिए महिलाओं के सहयोग के बिना पुरुष बहुत आगे नहीं बढ़ सकते। महिलाओं के सहयोग के बिना यह प्राचीन भूमि इस संसार में अपना उचित स्थान नहीं प्राप्त कर सकती….!”
सरोजिनी नायडू ने क्या कहा था?
11 दिसंबर 1946 को संविधान सभा में राष्ट्रीय ध्वज को अपनाने पर बोलते हुए सरोजिनी नायडू ने कहा, “अगर मैं आज यहां बोल रही हूं, तो यह किसी समुदाय, किसी पंथ या किसी लिंग की ओर से नहीं है, हालांकि इस सदन की महिला सदस्य इस बात पर जोर देती हैं कि एक महिला को बोलना चाहिए। मेरा मानना है कि विश्व-सभ्यता के आगे बढ़ने का समय आ गया है जब देश की सेवा में कोई यौन चेतना या यौन पृथक्करण नहीं रह जाना चाहिए।”