हायर एजुकेशन में मुस्लिम महिलाएं, मुस्लिम पुरुषों की तुलना में अधिक पहुंच रही हैं। ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन (AISHE)-2021 के आंकड़ों से पता चलता है कि अंडर ग्रेजुएट कोर्स में 1,000 मुस्लिम छात्रों में से 503 महिलाएं हैं।
हालांकि ओवरऑल आंकड़ा निराशाजनक ही है क्योंकि जिस मुस्लिम समुदाय की आबादी करीब 20 प्रतिशत है, हायर एजुकेशन में उनकी भागीदारी मात्र 4.6 प्रतिशत यानी 19.21 लाख है। जबकि AISHE 2019-20 में यह संख्या 21 लाख (5.5 प्रतिशत) था।
कार्यबल में मुस्लिम महिलाएं
भारतीय मुस्लिम महिलाओं के पेशेवर विकास को लेकर काम करने वाली रूहा शादाब ने द इंडियन एक्सप्रेस में एक लंबा लेख लिखकर यह बताया है कि वर्कफोर्स से मुस्लिम महिलाएं लापता होती जा रही हैं। वह लिखती हैं कि शिक्षा में महिलाओं और पुरुषों के अनुपात में वृद्धि हुई है, बावजूद इसके मुस्लिम महिलाएं स्पष्ट रूप से कार्यबल से अनुपस्थित हैं।
कार्यबल में मुस्लिम महिलाओं की अनुपस्थिति को दर्ज कराते हुए शादाब इस बात को बताना नहीं भूलती कि हमारे एजुकेशन सिस्टम और रोजगार के बीच एक गैप है, दोनों के बीच एक पुल की जरूरत है।
Periodic Labour Force Survey (PLFS) की 2021-22 की रिपोर्ट के मुताबिक कार्यबल में मुस्लिम महिलाएं मात्र 15 प्रतिशत और हिंदू महिलाएं 26 प्रतिशत हैं। PLFS (2020-21) की बात करें तो उसमें कामकाजी मुस्लिम महिलाओं की संख्या 15.3 प्रतिशत बताई गई थी। यानी अब संख्या में कमी आई है।
PLFS (2021-22) के आंकड़ों को ग्रामीण और शहरी क्षेत्र में बांटकर देखें तो एक आश्चर्यजनक सच सामने आता है। ग्रामीण क्षेत्र के कुल वर्कफोर्स में मुस्लिम महिलाएं 16.5 प्रतिशत हैं, जबकि शहरी क्षेत्र के कुल वर्कफोर्स में मुस्लिम महिलाएं 12 प्रतिशत हैं।
ध्यान देने वाली बात यह भी है कि भारत के दो अन्य प्रमुख अल्पसंख्यक समुदायों, ईसाई और सिख महिलाओं की संख्या वर्कफोर्स में मुस्लिम महिलाओं की तुलना में अधिक है।
पिछले कुछ सालों में इन आंकड़ों में क्या बदलाव आए हैं, उन्हें चार्ट में देखा जा सकता है:

अवैतनिक श्रम में मुस्लिम महिलाएं
शादाब बताती हैं कि Periodic Labour Force Survey (PLFS) की रिपोर्ट तीन विचलित करने वाले धर्मनिरपेक्ष रुझानों को दर्शाती है। एक: हमारे देश में महिला श्रम बल भागीदारी (एफएलएफपी) दर बहुत निचले स्तर पर स्थिर हो गई है (भारत के कुल वर्कफोर्स में 57.3 प्रतिशत पुरुष और 24.8 प्रतिशत महिलाएं हैं)। दो: महिलाओं के रोजगार को आय के पूरक स्रोत के रूप में देखा जाता है, और यह केवल परिवार के लिए कठिन समय में सक्रिय होता है। तीन: अवैतनिक श्रम (ऐसा काम जिसके लिए वेतन नहीं मिलता) में कार्यरत महिलाओं में उच्च शिक्षित महिलाओं की हिस्सेदारी भी बढ़ी है।
2017-18 में, स्नातक (या उच्च) स्तर की शिक्षा प्राप्त 6.2 प्रतिशत महिलाएं (15-59 वर्ष की आयु) अवैतनिक काम में लगी हुई थीं। जबकि 2021-22 तक यह हिस्सेदारी बढ़कर 11.2 फीसदी हो गई थी। यह आंकड़े बताते हैं कि अवैतनिक श्रम में पढ़ी-लिखी महिलाओं की संख्या बढ़ रही है।
क्या भेदभाव किया जा रहा है?
जून 2022 में “लेड बाय फाउंडेशन” की एक रिसर्च से यह बात समाने आयी थी कि अगर एक ही नौकरी के लिए हिंदू और मुस्लिम दो महिलाएं आवेदन करती हैं तो हिंदू महिला की तुलना में मुस्लिम महिला को कॉल आने की संभावना करीब 50 प्रतिशत कम होती है।
लेड बाय फाउंडेशन ने इसके लिए बकायदा एक प्रयोग किया था। फाउंडेशन ने 10 महीने के भीतर करीब 1000 नौकरियों के लिए आवेदन किया। ये आवेदन नौकरी से जुड़ी वेबसाइट्स के जरिए भेजे गए। क्वालिफिकेशन एक जैसा रखा गया था, बस नाम का अंतर होता था। एक में हिंदू लड़की का नाम होता था, दूसरे में मुस्लिम लड़की का। हिंदू और मुस्लिम आवेदकों के बीच पॉजिटिव रिस्पॉन्स का अंतर 47 प्रतिशत था।
रिसर्च के हवाले से डीडब्लू पर प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक, “नौकरी के 1,000 आवेदनों पर हिंदू महिला को 208 सकारात्मक जवाब आए। वहीं, मुस्लिम महिला को इससे करीब आधे कम 103 ने संपर्क किया” इस शोध में डॉक्टर रूहा शादाब भी शामिल थीं।