23 दिसम्बर, 1926 को दिल्ली में दोपहर का समय था। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता और गांधी के सहयोगी स्वामी श्रद्धानंद अभी-अभी एक लंबी यात्रा से लौटे थे और नया बाजार स्थित अपने कमरे में आराम कर रहे थे। वह निमोनिया से पीड़ित थे। शाम करीब 4 बजे अब्दुल रशीद नाम का एक युवक उनके घर में दाखिल हुआ और स्वामी से बात करने की जिद करने लगा।

दरवाजे पर खड़े धरम सिंह इसके पक्ष में नहीं थे। लेकिन स्वामी ने उनकी बात को अनसुना कर युवक को अंदर बुला लिया। जैसे ही धरम सिंह पानी लेने के लिए बाहर निकले, अब्दुल रशीद ने रिवॉल्वर निकाली और 70 वर्षीय वृद्ध स्वामी श्रद्धानंद को गोली मार दी। स्वामी के नाजुक शरीर पर रशीद ने प्वाइंट ब्लैंक रेंज यानी एक दम करीब से गोलियां चलाई थी। श्रद्धानंद की तत्काल मृत्यु हो गई।

गांधी ने राशिद को नहीं माना दोषी

हत्या से पूरा देश सदमे में था। कुछ साल पहले तक श्रद्धानंद मुस्लिम नेतृत्व के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे थे। यहां तक ​​कि उन्होंने भारतीय मुसलमानों को यह कहते हुए खिलाफत का समर्थन किया कि यह उनके लिए “अभी नहीं तो कभी नहीं” की लड़ाई है।

जब श्रद्धानंद की हत्या की खबर गांधी तक पहुंची, तो वे स्तब्ध रह गए और उन्होंने इस कायरतापूर्ण कृत्य की निंदा की। लेकिन उन्होंने राशिद को दोष देने से इनकार कर दिया। इसके बजाय उन्होंने उन लोगों को दोषी ठहराया जिन्होंने नफरत का माहौल बनाया “जहां कोई अपना संतुलन खो देगा और इस तरह के अमानवीय कृत्य का सहारा लेगा।”

गांधी ने तर्क दिया, “अब्दुल रशीद पर चढ़े गुस्से के लिए हम शिक्षित और अर्ध-शिक्षित वर्ग जिम्मेदार हैं। दो प्रतिद्वंद्वी पार्टियों के बीच भेदभाव करना और दोषारोपण करना अनावश्यक है।”

उन्होंने आगे कहा, “आज एक मुसलमान है जिसने एक हिंदू की हत्या की है। अगर कोई हिंदू किसी मुसलमान को मार डाले तो हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। भगवान न करे कि ऐसा हो, लेकिन जब हम अपनी जीभ या अपनी कलम को नियंत्रित नहीं कर सकते तो और क्या उम्मीद की जा सकती है?” गांधी ने परोक्ष रूप से श्रद्धानंद को उनके ‘शुद्धि’ कार्य के लिए दोषी ठहराया।

गांधी ने रशीद को ‘प्रिय भाई’ कहा!

गांधी ने तब अब्दुल रशीद को ‘प्रिय भाई’ के रूप में उल्लेखित किया था। उन्होंने कहा था, “मैं जानबूझकर उन्हें भाई कहता हूं और अगर हम सच्चे हिंदू हैं, तो आप समझेंगे कि मैं उन्हें ऐसा क्यों कहता हूं।

उन्होंने जोर देकर कहा, “…मैं रशीद को स्वामी की हत्या का दोषी भी नहीं मानता। दोषी, वास्तव में वे सभी हैं जिन्होंने एक दूसरे के प्रति घृणा की भावनाएं जगाई।

कुछ दिनों बाद, 30 दिसंबर को गांधी ने यंग इंडिया में फिर से लिखा: “मैं अब्दुल रशीद के लिए निवेदन करना चाहता हूं। मैं नहीं जानता कि वह कौन है। मेरे लिए यह मायने नहीं रखता कि किस चीज ने उसके विचार को प्रेरित किया। गलती हमारी है।”

रशीद का प्रसंग और NCERT की किताबों में बदलाव

हाल में एनसीईआरटी की किताबों में हुए कुछ संशोधनों पर विवाद हुआ। रशीद का प्रकरण हाल के विवाद के मद्देनजर प्रासंगिक है। एनसीईआरटी की किताबों में हुए कुछ संशोधन गांधीजी की हत्या से जुड़े पाठ से संबंधित हैं। गांधीवादी तर्क के अनुसार, गोडसे को ‘प्रिय भाई’ होना चाहिए था। लेकिन यह बेतुका तर्क होगा। गोडसे का अपराध जघन्य था। 

एनसीईआरटी पाठ्यपुस्तक में संशोधन के बाद भी ‘महात्मा गांधी के बलिदान’ उपशीर्षक से लिखे पाठ में गांधी की हत्या का विवरण दिया जा रहा है। यह 15 अगस्त, 1947 को गांधी की दंगाग्रस्त कोलकाता की यात्रा और हिंदुओं और मुसलमानों दोनों को हिंसा से बचने के लिए मनाने के उनके प्रयासों पर प्रकाश डालता है।

लेकिन उक्त पाठ के साथ समस्या यह थी कि उसमें गोडसे को “हिंदू चरमपंथी”, “महाराष्ट्रीय ब्राह्मण” और “हिंदू चरमपंथी समाचार पत्र” के संपादक के रूप में वर्णित किया गया था। एनसीईआरटी विशेषज्ञों की समिति ने उन संदर्भों को हटाने का फैसला किया और पाठ को यह बताने के लिए संशोधित किया, “30 जनवरी, 1948 को एक उग्रवादी नाथूराम विनायक गोडसे दिल्ली में प्रार्थना के दौरान गांधीजी के पास गया और उन पर तीन गोलियां चला दी, जिससे तुरंत ही उनकी मौत हो गई।”

मुस्लिम चरमपंथी और ईसाई चरमपंथी क्यों नहीं…

भारत में एक गुट है जिसके लिए गांधी उनकी रोजी-रोटी हैं। उस गुट ने विवाद खड़ा करना शुरू कर दिया कि गांधी की हत्या के सच को मोदी सरकार वैचारिक कारणों से मिटा रही है।

क्या यह गुट चाहता है कि हमारे बच्चों को “हिंदू चरमपंथियों” के बारे में पढ़ाया जाए? तो फिर “मुस्लिम चरमपंथियों”, “ईसाई चरमपंथियों” और अन्य के बारे में क्यों नहीं? क्या उन्होंने हमें बार-बार यह नहीं बताया कि आतंकवाद और उग्रवाद का कोई धर्म नहीं होता? क्या गांधी ने इसे स्वीकार किया होता, क्योंकि उनके अनुसार, “वास्तव में दोषी वे सभी हैं, जिन्होंने एक-दूसरे के खिलाफ नफरत की भावना को उकसाया?”