11 मई 1998। दिल्ली से करीब 750 किलोमीटर दूर राजस्थान के जैसलमेर में सब कुछ सामान्य दिख रहा था। पोखरण रेंज में सैन्यकर्मी अपने काम में लगे थे, लेकिन एक बंकर नुमा जगह में बैठे तीन अफसर पसीने से तर नज़र आ रहे थे। इन अफसरों के नाम थे कैप्टन आदी मर्जबान, मेजर जनरल नटराज और मेजर जनरल पृथ्वीराज। लेकिन भारतीय सेना में इस नाम के कोई अफसर थे ही नहीं, बल्कि यह क्षद्म नाम थे। 

कौन थे सेना की वर्दी में तीनों अफसर?

जिस शख्स की वर्दी पर मेजर जनरल पृथ्वीराज लिखा था वह डीआरडीओ के तत्कालीन चीफ डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम थे। मेजर जनरल नटराज की ड्रेस में डिपार्टमेंट ऑफ एटॉमिक एनर्जी (DAE) के चीफ आर चिदंबरम और कैप्टन मर्जबान की ड्रेस में पोखरण परमाणु रेंज के चीफ साइंटिफिक ऑफिसर थे। 

भारत ने जब दूसरा परमाणु परीक्षण करने का फैसला लिया तो सबसे बड़ी चुनौती इस मिशन को सीक्रेट रखने की थी। इसीलिए सरकार ने तय किया कि पोखरण में वैज्ञानिकों की आवाजाही की खबर लीक न हो और कोई शक न करे, इसलिए सबको सेना की वर्दी पहना दी जाए और कूट नाम दिया जाए। 

CIA और अमेरिकी सैटेलाइट को दिया चकमा

1998 से करीब 3 साल पहले भी भारत ने परमाणु परीक्षण की कोशिश की थी। उस वक्त यह खबर लीक हो गई थी और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसा हंगामा मचा और दबाव पड़ा कि नरसिम्हा राव सरकार ने अपने पैर पीछे खींच लिए थे। 1995 के बाद से ही खासकर अमेरिका को शक था कि भारत दोबारा परमाणु परीक्षण कर सकता है इसीलिए अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए चौकस थी। भारत के परमाणु परीक्षण पर नजर रखने के लिए अमेरिका ने 4 सैटेलाइट तैनात की थी।

एपीजे अब्दुल कलाम के साथ अटल बिहारी वाजपेयी (Express PHOTO/RAVI BATRA)

दिल्ली भी कोडवर्ड में बात करते थे

वैज्ञानिकों को इस बात का भी शक था कि उनकी बातचीत टेप की जा सकती है। पूरे मिशन को सीक्रेट रखने के लिए सबको कोड नेम दिया गया था। यहां तक कि डॉ. कलाम समेत दूसरे वैज्ञानिक जब दिल्ली, खासकर PMO बात करते तो कोड वर्ड इस्तेमाल किया करते थे, ताकि किसी को कानों कान कोई खबर ना हो।

रात के अंधेरे में पहुंचा प्लूटोनियम

11 मई को परमाणु परीक्षण से 10 दिन पहले मुंबई के सांताक्रूज हवाई अड्डे से एयरपोर्ट के स्पेशल विमान ने उड़ान भरी। इस प्लेन में लकड़ी के 6 बक्से रखे हुए थे। वरिष्ठ पत्रकार राज चेंगप्पा इंडिया टुडे की अपनी रिपोर्ट में लिखते हैं कि “हाथ में स्टेनगन लिए कमांडो इन बक्सों की रखवाली कर रहे थे”। मुंबई से उड़ान भरने के करीब 2 घंटे बाद हवाई जहाज जैसलमेर एयरपोर्ट पहुंचा। सभी बक्सों को इंडियन आर्मी के ट्रक में रखा गया और बिना किसी खास सुरक्षा के पोखरण की तरफ रवाना हो गए। इन बक्सों में प्लूटोनियम को गोले रखे हुए थे। एक-एक गोले का वजन 5 से 10 किलो के करीब था और इन गोलों को भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर ने तैयार किया था।

टेस्ट से ठीक पहले आई बुरी खबर

11 मई 1998 को आखिरकार वो दिन आ ही गया जिसका वैज्ञानिक लंबे समय से इंतजार कर रहे थे। परीक्षण की घड़ी नजदीक आई लेकिन ऐन मौके पर एक समस्या आन खड़ी हुई। परमाणु रेंज के चीफ मेट्रोलॉजिकल अफसर कंट्रोल रूम में बैठे चिदंबरम और डॉ. कलाम के पास पहुंचे। बताया कि हवा तेज हो गई है। इस स्थिति में परीक्षण किया तो रेडिएशन का दायरा बड़ा हो सकता है और आसपास के गांव में तबाही मच सकती है।

पोखरण साइट (एक्सप्रेस आर्काइव)

चिंता में डूब गए वैज्ञानिक

वैज्ञानिकों के माथे पर चिंता की लकीरें तैरने लगीं। लेकिन 3 बजते-बजते हवाएं थम गईं। 3:45 पर वह बटन दबा दी गई, जिसके जरिए तीनों बमों तक एनर्जी पहुंचनी थी। धमाका होते ही कंट्रोल रूम में बैठे अफसरों ने भारत जिंदाबाद के नारे लगाए। सफल परमाणु परीक्षण की जानकारी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को दी गई।

2 दिन बाद 13 मई 1998 को भारत ने यहीं दो और परमाणु परीक्षण सफलतापूर्वक किए। इस घटना के बाद अमेरिका समेत तमाम देशों ने भारत पर कड़े आर्थिक प्रतिबंध लगा दिए, भारत झुका नहीं।