नीरजा चौधरी

साल 1998 में सीताराम केसरी से कमान लेकर सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया था। इसके कुछ दिन बाद मैं अनौपचारिक बातचीत के लिए पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव से मिलने गई थी। बातचीत के दौरान राव ने कहा था, “अब यह पार्टी अलगे 25-30 साल के लिए इस परिवार (नेहरू-गांधी परिवार) के हाथ में चली गई है।” राव भविष्यवक्ता निकलें। लेकिन अब, नेहरू-गांधी परिवार का कांग्रेस पार्टी पर प्रभाव कम हो रहा है।

एक समय था जब राज्यों के मुख्यमंत्रियों के पास जीके मूपनार, एमएल फोतेदार, बूटा सिंह या सीताराम केसरी जैसे दूत भेजे जाते थे। उन दूतों को देख मुख्यमंत्री कांप जाया करते थे, क्योंकि हस्ताक्षर के लिए एक-पंक्ति का इस्तीफा भी आया हो सकता था।

लेकिन भारत बदल रहा है और कांग्रेस पार्टी भी बदल रही है। अगर किसी चीज ने इस बदलती वास्तविकता को नाटकीय रूप से रेखांकित किया है, तो वह राजस्थान है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने जयपुर में कांग्रेस विधायक दल की बैठक बुलाने की मांग की थी। इसके लिए अजय माकन और मल्लिकार्जुन खड़गे राजधानी जयपुर पहुंचे थे।

आलाकमान ने सचिन पायलट को राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया था। 2014 के बाद के वर्षों में उनसे बार-बार इसके लिए वादा किया गया था। अनुभवी गहलोत को कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में राष्ट्रीय मंच पर लाने की तैयारी थी।

पहली नज़र में यह एक जीत की स्थिति लग रही थी। युवा पायलट में सत्ता विरोधी लहर को मात देने और अगले साल होने वाले चुनावों में कांग्रेस की संख्या बढ़ाने की संभावना अधिक थी। जानकार गहलोत को तीन बार के सीएम के रूप में प्रशासन का अनुभव है। वह पिछले 40 वर्षों में कांग्रेस के सिस्टम से भी वाकिफ हैं और भारत की अपनी समझ को देखते हुए संगठन के पुनर्निर्माण में मदद कर सकते थे। संभवतः 2024 के आम चुनाव में कांग्रेस की सीट बढ़ सकती थी।

आलाकमान ने यह भी आकलन किया होगा कि विपक्षी नेताओं के बीच गहलोत किसी भी अन्य कांग्रेस नेता की तुलना में अधिक स्वीकार्य होंगे। इसके अलावा वह गांधी परिवार के विश्वासपात्र भी माने जाते हैं।

लेकिन गहलोत मुख्यमंत्री बने रहना चाहते हैं। सीएलपी की बैठक नहीं हुई। कथित तौर पर गहलोत के प्रति निष्ठावान 92 विधायक सीएलपी की बैठक में शामिल न होकर कहीं और मिले। फिर वे स्पीकर के पास गए और विधानसभा से अपना इस्तीफा दे दिया। उन्होंने तीन शर्तें रखीं –  पहला यह कि कांग्रेस अध्यक्ष को सीएम नियुक्त करने की जिम्मेदारी देने के प्रस्ताव की घोषणा 16 अक्टूबर के बाद की जाए, दूसरा- 2020 में पायलट के साथ बगावत करने वाला किसी भी विद्रोही नेता को मुख्यमंत्री न बनाया जाए, तीसरा- केंद्रीय पर्यवेक्षक विधायकों से अलग-अलग नहीं बल्कि सभी से एक साथ बात करें।

गहलोत ने आलाकमान को स्पष्ट संदेश दिया था कि उनके पास बहुमत है। वह पार्टी तोड़ भी सकते हैं। साथ ही अगर वह पार्टी प्रमुख बनते हैं, तो अगले सीएम का फैसला वही करेंगे, सोनिया गांधी नहीं। और वह किसी भी हालत में पार्टी आलाकमान की पसंद पायलट को मुख्यमंत्री नहीं बनाएंगे। नेताओं के बीच सामान्य राजनीतिक मतभेदों से आगे बढ़कर गहलोत और पायलट के बीच संबंध बेहद कड़वे हो गए हैं। आलाकमान कथित तौर पर गहलोत से नाराज है, लेकिन उनके खिलाफ कार्रवाई क्या होगी यह देखा जाना बाकी है।

2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से गांधी परिवार अपना दबदबा खोता जा रहा है। गांधी परिवार न तो पार्टी को चुनाव जीत दिला पा रही है। न ही आवश्यक धन जुटाने में सक्षम नजर आ रही है।

दक्षिणी राज्यों में भारत जोड़ी यात्रा के दौरान भले ही राहुल गांधी का उत्साहपूर्वक स्वागत किया जा रहा हो, लेकिन अभी उसका वोट के रूप में साबित होना बाकी है। प्रियंका गांधी वाड्रा भी उम्मीद के मुताबिक परिणाम नहीं दे पायी हैं। सोनिया गांधी का स्वास्थ्य उन्हें सक्रिय भूमिका निभाने की अनुमति नहीं दे रहा। इससे भी बुरी बात यह है कि राजस्थान जैसे संकट का अनुमान लगाने और उससे निपटने के लिए सोनिया के पास अब अहमद पटेल जैसे नेता नहीं हैं। राज्य में काम करने वालों को राजस्थान के “विद्रोह” के बारे में कोई जानकारी ही नहीं थी।

राजस्थान ने इस बात को रेखांकित किया है कि आज कांग्रेस में आलाकमान जैसी कोई चीज नहीं है। औपचारिक रूप से मौजूद होने पर भी उसकी रिट नहीं चल रही है। क्या कांग्रेस अब ऐसे समय में प्रवेश कर रहा है जब गांधी परिवार का वर्चस्व नहीं होगा? क्या पार्टी पर परिवार के वर्चस्व की अवधि – जैसा कि नरसिम्हा राव ने 1998 में भविष्यवाणी की थी – करीब आ रही है?

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं)