बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली में मुस्लिम लीग के सबसे बड़े नेता और पाकिस्तान आंदोलन के लीडर मोहम्मद अली जिन्ना और मास्टर तारा सिंह की मुलाकात हुई थी। जिन्ना ने तारा सिंह के सामने पाकिस्तान के भीतर सिखों को स्वायत्तता देने का प्रस्ताव रखा। लेकिन सिंह ने प्रस्ताव को खारिज कर दिया।

आजादी के वक्त के इतिहास में तारा सिंह का जिक्र बार-बार आता है। उन्होंने विभाजन का विरोध किया था। जिन्ना के प्रस्ताव को अस्वीकार किया था। पंजाबी सूबे आंदोलन में अपनी जान दाव पर लगा दी। हिंदू संगठनों ने भाषा के आधार पर अलग राज्य की तारा सिंह की मांग का विरोध किया। बावजूद इसके अपनी मौत से कुछ माह पहले मास्टर तारा सिंह विश्व हिंदू परिषद के संस्थापकों में से एक बने।

नानक चंद से तारा सिंह बनने की कहानी

एक समय पर सिखों के सबसे बड़े नेता रहे मास्टर तारा सिंह का जन्म 24 जून 1885 को रावलपिंडी (अब पाकिस्तान में) में एक हिंदू परिवार में हुआ था। तब उनका नाम नानक चंद हुआ करता था। 12 साल की उम्र में वह सिख धर्म की कहानियों से इतने प्रभावित हुए कि नानक चंद से तारा सिंह बन गए। उन्होंने अपना पूरा जीवन सिख धर्म की सेवा में समर्पित करने का निर्णय लिया।

तारा सिंह से मास्टर तारा सिंह बनने की कहानी

साल 1907 में तारा सिंह ने अमृतसर के प्रसिद्ध खालसा कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद शिक्षण में डिप्लोमा प्राप्त किया और हेडमास्टर के रूप में लायलपुर में नए खुले खालसा हाई स्कूल में शामिल हो गए। वह स्कूल की बेहतरी के लिए अपने मासिक वेतन 150 रुपये में से 135 रुपये स्कूल के खजाने में दे देते थे। एक शिक्षक के रूप में उनके योगदान के कारण, उन्हें ‘मास्टर’ उपनाम दिया गया, जो अब तक उनसे जुड़ा है।

गुरुद्वारों के लिए चलाया आंदोलन

प्रधानाध्यापक बनना उनकी यात्रा की शुरुआत भर थी। तारा सिंह को तो अभी अपने समुदाय के लिए बहुत कुछ करना था। 1920 के दशक तक पंजाब उथल-पुथल के बीच था। प्रथम विश्व युद्ध, अंग्रेजों के राजनीतिक दमन और अमृतसर में कुख्यात जलियांवाला बाग हत्याकांड ने पंजाबी समाज की आत्मा को झकझोर कर रख दिया था।

इस समय अमृतसर में हरमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) सहित पंजाब के गुरुद्वारों पर सिख धर्म के एक संप्रदाय उदासी महंतों का नियंत्रण था। उन महंतों पर आए दिन ज्यादती और भ्रष्टाचार के कई आरोप लग रहे थे। इससे सामाजिक सुधारों का एक निरंतर अभियान शुरू हुआ जिसे ‘अकाली आंदोलन’ या ‘गुरुद्वारा सुधार आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है।

वर्षों के संघर्ष और कई अभियानों के बाद 15 नवंबर 1920 को अमृतसर में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (SGPC) का गठन किया गया। इसके बाद 14 दिसंबर 1920 को शिरोमणि अकाली दल का गठन किया गया। तारा सिंह SGPC के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। मास्टर के ही सुधार अभियानों के वजह से 1925 में गुरुद्वारा अधिनियम बना। इस कानून ने SGPC को सिख गुरुद्वारों का एकमात्र नियंत्रण प्राधिकारी बना दिया, जो आज भी जारी है।

ननकाना साहिब नरसंहार के बाद छोड़ी टीचर की नौकरी

1921 में कुख्यात ननकाना साहिब नरसंहार के बाद तारा सिंह ने टीचर की नौकरी छोड़ दी और पूर्णकालिक एसजीपीसी कार्यकर्ता बन गए। दरअसल, तब उदासी सम्प्रदाय के महंतों ने अकाली प्रदर्शनकारियों पर गोलीबारी का आदेश दिया था और इससे तारा उत्तेजित हो गए थे। उन्होंने न केवल एक कार्यकर्ता बल्कि पत्रकार के रूप में भी काम करना शुरू कर दिया।

1920 के दशक के अकाली आंदोलन ने तारा सिंह को एक पत्रकार से पंजाब में सिख समुदाय की सबसे प्रमुख आवाज़ों में से एक बना दिया। वह भारत की आजादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे प्रमुख राष्ट्रीय नेताओं से भी जुड़ गए। उनके डॉ. भीमराव अम्बेडकर से भी घनिष्ठ संबंध थे।

स्तंभकार प्रभु दयाल सिंह सैनी अपने एकेडमिक वर्क “द सिख-डॉ अंबेडकर कनेक्शन” (2017) में लिखा है कि “डॉ. बीआर अंबेडकर अपनी जातिविहीन प्रकृति के कारण सिख धर्म से काफी प्रभावित थे। दोनों सामाजिक बुराइयों को खत्म करने और सुधार के साथ-साथ शिक्षा पर जोर देने की इच्छा रखते थे। तारा सिंह के नेतृत्व में एसजीपीसी ने मुंबई में ‘दलित वर्गों’ के लिए एक शिक्षण संस्थान खोलने की पहल की थी। इस प्रकार 1937 में मुंबई में गुरु नानक खालसा कॉलेज अस्तित्व में आया था।”

बंटवारे का किया विरोध

स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सिखों का रुख शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी जनरल हाउस में पारित प्रस्तावों से स्पष्ट होता है। SGPC जनरल हाउस ने 12 फरवरी 1940 को मास्टर तारा सिंह की अध्यक्षता में अपनी बैठक में हिंदुस्तान को हिंदू और मुस्लिम क्षेत्रों में विभाजित करने के लिए मुस्लिम लीग द्वारा प्रस्तावित पाकिस्तान योजना का कड़ा विरोध किया।

SGPC की पूर्व महासचिव किरनजोत कौर द ट्रिब्यून में लिखती हैं, “3 मार्च, 1947 को मास्टर तारा सिंह ने लाहौर में पंजाब असेंबली के बाहर ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ का नारा लगाया था।”

औपनिवेशिक काल (1920) में गठित सिखों का सबसे बड़े संगठन ‘अकाली दल’ भारत की आजादी से कुछ समय पहले दो भागों में बंट गया था। एक ने अपना नाम रखा सेंट्रल अकाली दल और दूसरा बना ऑफिशियल अकाली दल। दूसरे वाले (ऑफिशियल अकाली दल) के मुख्य नेता हुए मास्टर तारा सिंह।

सिख नेता से विश्व हिंदू परिषद के संस्थापक बनने की कहानी

1950 के दशक में पंजाबी सूबा की मांग तेज हुई थी। मास्टर तारा सिंह पंजाबी सूबा आंदोलन के प्रमुख नेता थे। लेकिन भारतीय जनसंघ (अब भाजपा) और आर्य समाज सहित कई हिंदू संगठन इस मांग का विरोध कर रहे थे। लेकिन दिलचस्प यह है कि अपनी जिंदगी के आखिरी दिनों में वह खुद एक हिंदू दक्षिणपंथी संगठन ‘विश्व हिंदू परिषद’ के संस्थापक सदस्य बने। यह कैसे हुए, इस बारे में विस्तार से जानने के लिए फोटो पर क्लिक करें:

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मास्टर तारा सिंह की वह मांग, जिसे पंडित नेहरू ने ठुकरा दिया था, RSS को भी था हिंदू-सिख टकराव का डर