ताजा हालात में महाराष्ट्र की राजनीति में सबसे बड़ा सवाल यही है कि बीजेपी राज्य विधानसभा चुनाव में अजित पवार की अगुवाई वाली एनसीपी के साथ उतरेगी या उसके साथ गठबंधन तोड़ देगी? बाहरी हालात से मिल रहे संकेत गठबंधन तोड़ने की ओर इशारा कर रहे हैं, लेकिन बीजेपी की अंदरूनी मजबूरी ऐसा करने की इजाजत नहीं देती।
बाहरी संकेत क्या हैं
4 जून को आए लोकसभा चुनाव के नतीजों के आधार पर मिल रहे संकेत देखें तो पता चलता है कि गठबंधन से बीजेपी को नुकसान हुआ। आरएसएस से जुड़ी एक साप्ताहिक मराठी पत्रिका में लिखे गए एक लेख में भी स्पष्ट कहा गया है कि महाराष्ट्र में लोकसभा चुनाव में बीजेपी के खराब प्रदर्शन के लिए अजित पवार की अगुवाई वाली एनसीपी से किया गया गठबंधन जिम्मेदार है। ऐसे में इस विश्लेषण का संकेत यह है कि इस गठबंधन से किनारा किया जाए।

इस मराठी पत्रिका का नाम विवेक है। पत्रिका ने अपनी कवर स्टोरी में कहा है कि महाराष्ट्र में हर भाजपा कार्यकर्ता जब भी लोकसभा चुनाव में पार्टी के खराब प्रदर्शन के बारे में बात करता है तो वह एनसीपी से गठबंधन किए जाने से अपनी बात शुरू करता है और यह साफ है कि भाजपा के कार्यकर्ता एनसीपी से गठबंधन किए जाने से खुश नहीं हैं यहां तक कि भाजपा के नेता भी इस बात को जानते हैं।
लोकसभा चुनाव में हुआ बीजेपी को नुकसान
राजनीतिक दल | 2024 में मिली सीटें | 2019 में मिली सीटें |
बीजेपी | 9 | 23 |
कांग्रेस | 13 | 1 |
एनसीपी | 1 | 4 |
एनसीपी (शरद चंद्र पवार) | 8 | – |
शिवसेना (यूबीटी) | 9 | – |
शिवसेना | 7 | 18 |
पत्रिका की कवर स्टोरी के मराठी शीर्षक का हिंदी में अनुवाद है- कार्यकर्ता निराश नहीं है बल्कि भ्रमित है। वैसे, इस लेख में पार्टी, कार्यकर्ताओं और एनडीए सरकार के बीच संवाद की कमी को भी चुनाव में खराब प्रदर्शन की वजह बताया गया है।
याद दिलाना होगा कि कुछ दिन पहले भी महाराष्ट्र में बीजेपी के एक नेता ने पार्टी की बैठक में कहा था कि बीजेपी कार्यकर्ता चाहते हैं कि अजित पवार के साथ गठबंधन खत्म कर दिया जाना चाहिए।

उससे पहले आरएसएस के विचारक रतन शारदा ने ऑर्गेनाइजर में लिखे अपने लेख में कहा था कि महाराष्ट्र में एनसीपी के साथ गठबंधन करना पार्टी के लिए सही फैसला नहीं था।
महाराष्ट्र में अक्टूबर में विधानसभा के चुनाव होने हैं और इस लिहाज से चुनाव में काफी कम वक्त बचा है और बीजेपी और एनसीपी के संबंध जिस तरह खराब होते दिख रहे हैं, उससे एनसीपी के एनडीए गठबंधन में बने रहने को लेकर तमाम सवाल खड़े हो रहे हैं।
महाराष्ट्र में पिछले विधानसभा चुनाव के आंकड़े (कुल सीटें- 288)
राजनीतिक दल | मिली सीटें |
बीजेपी | 105 |
कांग्रेस | 44 |
एनसीपी (अविभाजित) | 54 |
शिवसेना (अविभाजित) | 56 |
निर्दलीय | 13 |
लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद बढ़ी नाराजगी
मराठी पत्रिका विवेक ने अपने आर्टिकल में लिखा है कि बीजेपी का एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना के साथ गठबंधन हिंदुत्व पर आधारित था और इसलिए यह एक स्वाभाविक गठबंधन था लेकिन इस गठबंधन में एनसीपी के आने की वजह से नाराजगी सामने आने लगी और लोकसभा चुनाव के बाद यह नाराजगी और बढ़ी है।
आर्टिकल में आगे कहा गया है कि नेता और पार्टियां चुनावी हार-जीत का अपने ढंग से हिसाब लगाते हैं लेकिन अगर वे गलत साबित हो जाएं तो क्या होगा? इस सवाल का जवाब दिए जाने की जरूरत है।
पत्रिका ने यह सवाल भी उठाया है कि राम मंदिर आंदोलन के दौरान किए गए संघर्ष और इंदिरा गांधी सरकार द्वारा लगाए गए आपातकाल के खिलाफ बीजेपी ने जो माहौल बनाया है, उससे महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में क्या युवा मतदाता पार्टी की ओर आकर्षित होंगे?

लोगों को सवालों का नहीं मिल रहा जवाब
विवेक ने लिखा है कि बीजेपी के कई कार्यकर्ता जो हिंदुत्व की विचारधारा के साथ काम करते हैं, वे सिर्फ पार्टी में पद ही नहीं चाहते बल्कि यह भी चाहते हैं कि उनकी आवाज को सुना जाना चाहिए। लोगों को हिंदुत्व, सरकार के कामकाज, उद्योग, काम-धंधे, इकनॉमी, शिक्षा और रोजगार से जुड़े मुद्दों पर संतोषजनक जवाब नहीं मिल रहे हैं। सभी जातियों का पढ़ा-लिखा मिडिल क्लास आज की हकीकत है और बीजेपी को 2014 और 2019 में इस वर्ग से अच्छा-खासा समर्थन मिला था लेकिन यह चिंता की बात है कि अब यह वर्ग बेहतर नहीं महसूस कर रहा है।
महाराष्ट्र में तालमेल की कमी
मध्य प्रदेश का हवाला देते हुए आर्टिकल में कहा गया है कि वहां बीजेपी ने सभी 29 लोकसभा सीटों पर जीत दर्ज की और ऐसा सरकार, कार्यकर्ताओं और लाभार्थियों के बीच जबरदस्त तालमेल की वजह से हुआ। लेकिन महाराष्ट्र में सरकार, कार्यकर्ता, समान विचारधारा वाले संगठनों में काम कर रहे लोगों और बुद्धिजीवियों के बीच तालमेल नहीं है और यह भविष्य के लिए बेहद खतरनाक है। जब तक पार्टी के कार्यकर्ता को केंद्रीय भूमिका में नहीं लाया जाएगा तब तक बेचैनी के इस माहौल में बदलाव नहीं होगा।
यहां पर याद दिलाना जरूरी होगा कि लोकसभा चुनाव के नतीजे के बाद आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा था कि एक सच्चा स्वयं सेवक कभी भी अहंकार नहीं करता। संघ के बड़े नेता इंद्रेश कुमार ने भी एक कार्यक्रम में कहा था कि जिन लोगों ने अहंकार किया वह सिर्फ 241 सीटों पर ही आकर रुक गए। उनका सीधा इशारा बीजेपी की ओर था। बीजेपी को लोकसभा चुनाव में 240 सीटें मिली हैं।
एक और बाहरी संकेत- शरद पवार से मिले छगन भुजबल
महाराष्ट्र की राजनीति में लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद हलचल बढ़ी है। कुछ दिन पहले एनसीपी के वरिष्ठ नेता और महाराष्ट्र सरकार में कैबिनेट मंत्री छगन भुजबल ने एनसीपी के संस्थापक और एनसीपी (शरद चंद्र पवार) के मुखिया शरद पवार से उनके आवास पर मुलाकात की थी। इस मुलाकात के बाद से ही इस बात की चर्चा है कि क्या छगन भुजबल जैसे वरिष्ठ नेता अजित पवार का साथ छोड़कर शरद पवार के साथ जा सकते हैं? हालांकि छगन भुजबल ने कहा था कि वह राज्य में आरक्षण के मामले को लेकर मराठा समुदाय और ओबीसी समुदायों के बीच हो रहे संघर्ष को लेकर पवार से मिलने गए थे।
छगन भुजबल महाराष्ट्र की राजनीति के बड़े ओबीसी चेहरे हैं। अटकलें हैं कि उन्हें लग रहा है कि अजित पवार खेमे में उनका ‘उचित सम्मान’ नहीं हो पा रहा।
लोकसभा चुनाव के नतीजे के बाद यह साफ दिखाई दिया है कि महाराष्ट्र की राजनीति में शरद पवार की पकड़ अपने भतीजे अजित पवार के मुकाबले कहीं ज्यादा है तो ऐसे में क्या अजित पवार के खेमे में चुनाव से पहले भगदड़ हो सकती है?
एक और संकेत- अजित पवार खेमे में टूट
ऐसी अटकलें तो थीं ही कि अजित पवार खेमे में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा। अब यह बात साफ भी हो गई। पाटी में टूट हो गई है। पिंपरी-चिंचवाड़ की एनसीपी इकाई के अध्यक्ष और तीन अन्य नेताओं ने अजित पवार का साथ छोड़ दिया है और वे बहुत जल्द शरद पवार की अगुवाई वाले खेमे में शामिल होने जा रहे हैं।
पिछले महीने शरद पवार गुट के विधायक रोहित पवार ने दावा किया था कि अजित पवार के खेमे के कई विधायकों ने उनसे संपर्क किया है।
संघ और बीजेपी के भीतर से अजित पवार के खिलाफ आवाज उठने के बाद क्या अब बीजेपी को ऐसा लग रहा है कि एनसीपी के बिना ही विधानसभा चुनाव लड़ने में फायदा है।
अजित पवार की अगुवाई वाली एनसीपी को लेकर जैसा माहौल एनडीए में बन रहा है, उससे ऐसा लगता है कि महाराष्ट्र के एनडीए गठबंधन में अब एनसीपी ज्यादा दिन तक नहीं रह पाएगी।
…लेकिन बीजेपी की मजबूरी है
बाहरी संकेत भले ही गठबंधन तोड़ने की ओर इशारा कर रहे हों, लेकिन बीजेपी की मजबूरी भी है। मजबूरी यह कि गठबंधन तोड़ने से सत्ता में भागीदारी खतरे में पड़ जाएगी।
दूसरी बात, यह कि बीजेपी के लिए मौजूदा साथी का विकल्प तलाशना मुश्किल होगा। शरद पवार गुट से समझौते के आसार नहीं हैं। शिवसेना का उद्धव ठाकरे गुट भी अब इंडिया का हिस्सा है। लिहाजा उससे गठबंधन भी आसान नहीं होगा। लोकसभा चुनाव के नतीजों को देखते हुए भी ये पार्टियां बीजेपी के खेमे में नहीं जाना चाहेंगी।
ऐसे में ज्यादा उम्मीद है कि बीजेपी मजबूरी का साथ निभाते हुए एनसीपी (अजित पवार) के साथ ही विधानसभा चुनाव में उतरे।