1996 का चुनाव भारत के लिए ऐतिहासिक था। इस चुनाव के बाद बीजेपी पहली बार सत्ता में आई, भले ही सिर्फ 13 दिनों के लिए। इस बीच भारत को दो साल के अंतराल में दो प्रधानमंत्री मिले।
11वीं लोकसभा का चुनाव 27 अप्रैल से 7 मई 1996 के बीच हुआ था। 59.25 करोड़ पात्र मतदाताओं में से 57.94% या 34.33 करोड़ ने 7.67 लाख से अधिक मतदान केंद्रों पर मतदान किया। 543 सीटों के लिए कुल 13,952 उम्मीदवार चुनाव मैदान में थे।
इस चुनाव में कांग्रेस ने 140 सीटें जीतीं जो आजादी के बाद उसकी जीती हुई सबसे कम सीटें थीं। इनमें से बाईस सीटें पी वी नरसिम्हा राव के आंध्र प्रदेश में जीती गईं। 161 सीटों पर जीत के साथ बीजेपी लोकसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन गई। 1996 में पार्टी ने अविभाजित उत्तर प्रदेश में 85 में से 52 सीटें और अविभाजित मध्य प्रदेश में 40 में से 27 सीटें जीतीं थी।
जनता दल ने 46 सीटें, सीपीआई (एम) ने 32, डीएमके और समाजवादी पार्टी ने 17-17, सीपीआई ने 12 और बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी) ने 11 सीटें जीतीं।

वाजपेयी की 13 दिन की सरकार
राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा द्वारा भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने के बाद, 16 मई 1996 को अटल बिहारी वाजपेयी को पद की शपथ दिलाई गई। बता दें कि यह अयोध्या में विवादित ढांचा ध्वस्त किए जाने के बाद हुआ पहला आम चुनाव था। 2024 में जो लोकसभा चुनाव हो रहा है वह अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन के बाद होने वाला पहला चुनाव है। इस चुनाव में भाजपा ने एनडीए के लिए ‘400 पार’ का नारा दिया है।
1996 के चुनाव से साढ़े तीन साल पहले (6 दिसंबर, 1992) ही कारसेवकों ने बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया था और बीजेपी उस समय राजनीतिक तौर पर पीछे थी। पार्टी के एकमात्र सहयोगी महाराष्ट्र में बाल ठाकरे की शिव सेना और पंजाब में प्रकाश सिंह बादल की शिरोमणि अकाली दल थे।
27 मई को, अटल बिहारी वाजपेयी ने लोकसभा में विश्वास प्रस्ताव पेश किया। दो दिनों की बहस के बाद, यह स्पष्ट था कि प्रस्ताव पारित नहीं होगा। प्रधानमंत्री ने सदन को बताया कि वह अपने विरोधियों की संख्यात्मक ताकत के सामने झुकते हैं लेकिन वह तब तक आराम नहीं करेंगे जब तक कि बड़ा राष्ट्रीय उद्देश्य हासिल नहीं हो जाता। उन्होंने कहा, ‘मैं अपना इस्तीफा सौंपने के लिए राष्ट्रपति के पास जा रहा हूं’ और सदन से चले गए।

एच डी देवेगौड़ा की 10 महीने की सरकार
तब तक भाजपा विरोधी 13-पार्टी संयुक्त मोर्चा का गठन हो चुका था। एन चंद्रबाबू नायडू इसके संयोजक थे। वाजपेयी के इस्तीफे के बाद एच डी देवेगौड़ा (जो उस समय कर्नाटक के मुख्यमंत्री थे) ने 1 जून को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली। वह तब MP थे और सितंबर में राज्यसभा के लिए चुने गए थे।
देवेगौड़ा की सरकार में मुलायम रक्षामंत्री बने, पी. चिदम्बरम वित्त मंत्री बने और सीपीआई के इंद्रजीत गुप्ता और चतुरानन मिश्रा क्रमशः गृह मंत्री और कृषि मंत्री बने। मुरासोली मारन (डीएमके) को उद्योग मंत्रालय दिया गया और जनता दल के आई के गुजराल, राम विलास पासवान और एसआर बोम्मई को क्रमशः विदेश, रेलवे और मानव संसाधन विकास मंत्रालय दिया गया। हालांकि, लोकसभा में संयुक्त मोर्चा के पास बहुमत नहीं था, ऐसे में सत्ता में बने रहने के लिए देवगौड़ा की सरकार कांग्रेस के बाहरी समर्थन पर निर्भर थी।

सीताराम केसरी बने कांग्रेस की पसंद
उस समय कांग्रेस का नेतृत्व नेहरू-गांधी परिवार के पुराने वफादार सीताराम केसरी ने किया था, जो 1979 से पार्टी के कोषाध्यक्ष थे। नरसिम्हा राव के लोकसभा चुनाव हारने और सितंबर में पार्टी नेतृत्व छोड़ने के लिए मजबूर होने के बाद, केसरी पार्टी के भीतर सभी खेमों के लिए स्वीकार्य एकमात्र उम्मीदवार बनकर उभरे।
गुजराल का छोटा कार्यकाल
देवेगौड़ा के शपथ लेने के 10 महीने बाद 30 मार्च 1997 को कांग्रेस ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। प्रधानमंत्री को विश्वास प्रस्ताव लाने के लिए मजबूर होना पड़ा, जिसे 11 अप्रैल को से खारिज कर दिया गया।

सीताराम केसरी ने कहा कि वह नये नेता के नेतृत्व में एक और संयुक्त मोर्चा सरकार का समर्थन करने को तैयार हैं। हालांकि, रेस में मुलायम और मूपनार के नाम आगे थे लेकिन गुजराल अप्रत्याशित रूप से गठबंधन की पसंद के रूप में उभरे। सीपीआई (एम) के हरकिशन सिंह सुरजीत ने बाद में द इंडियन एक्सप्रेस को एक साक्षात्कार में बताया था कि मुलायम को लालू प्रसाद यादव और शरद यादव ने दौड़ से बाहर कर दिया था, जिन्होंने उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में स्वीकार करने से इनकार कर दिया था।
कांग्रेस का सरकार पर दबाव
गुजराल ने 21 अप्रैल, 1997 को प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और देवेगौड़ा के मंत्रिमंडल में बने रहने का फैसला किया। लेकिन वह भी इस पद पर नहीं टिके। नवंबर 1997 में, राजीव गांधी की हत्या के छह साल से अधिक समय बाद, हत्या की जांच के लिए गठित न्यायमूर्ति मिलाप चंद जैन आयोग की रिपोर्ट लीक हो गई थी। रिपोर्ट में संयुक्त मोर्चा के घटक दल द्रमुक की भूमिका पर सवाल उठाए गए थे और कांग्रेस को सरकार पर दबाव डालने का एक नया कारण मिल गया।

कांग्रेस ने डीएमके सदस्यों को सरकार से हटाने की मांग की। जब गुजराल ने इनकार कर दिया, तो सीताराम केसरी ने समर्थन वापस ले लिए, गुजराल ने इस्तीफा दे दिया और लोकसभा भंग कर दी गई।
1996 के चुनाव में इन्हें हासिल हुई जीत
1996 के चुनाव में नरसिम्हा राव ने आंध्र प्रदेश के नंदयाल और ओडिशा के बेरहामपुर में जीत हासिल की थी। कांशीराम (बसपा) ने होशियारपुर में, चंद्र शेखर (समता पार्टी) ने बलिया में, मेनका गांधी (जनता दल) ने पीलीभीत में, और विजया राजे सिंधिया और उनकी बेटी वसुंधरा राजे (दोनों भाजपा) ने क्रमशः गुना और झालावाड़ में जीत हासिल की थी। मुलायम सिंह यादव पहली बार लोकसभा में पहुंचे। पूर्व दस्यु फूलन देवी मिर्ज़ापुर से सपा सांसद बनीं थीं।